गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 300

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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पद्यानुवाद
'पापी' के पर-तिय-विलासको देखूँ आँखें मींचे।
कब तक विरस प्रतीक्षा सखि! मैं करूँ विटपके नीचे?
यमुन-पुलिनके सघन कुंज में रमते आज मुरारी।
प्रियकी अमर सुहागिनि होकर जीती बाजी हारी

बालबोधिनी- श्रीराधा प्रतीक्षा करती-करती नैराश्य को प्राप्त होकर अपनी सखी से कहती हैं- सखि! कुछ तो बोलो, मौन का त्याग करो, अब इस वन के लतानिकुंज में व्यर्थ ही बहुत देर तक रुकने से क्या लाभ है? 'खल हलधरसहोदरे' हलधर बलराम जी का नाम है, उनका छोटा भाई कृष्ण, जो अतिशय खल है। हलधर का अर्थ होता है, हलवाहा। श्रीकृष्ण हल वाले के समान ही खल, गँवार और अविदग्ध हैं। मेरी उपेक्षा कर, मुझे ठग कर उस सुलोचना के साथ रमण कर रहे हैं। अरे, वह सुलोचना कैसी? वे तो अपने जैसी किसी गँवार रमणी के साथ ही रमण कर रहे हैं, मेरा उनसे क्या लेना-देना? मैं उन पर विश्वास स्थापन कर इस बीहड़ वन में सारी रात बैठी रही, मेरी कितनी उपेक्षा की है। मैं इस कुंज में दहकती रहूँ, क्या मैं उन्हें ढूँढती ही रहूँ? मेरे पास चारा क्या है? पर सखि! कैसे सहन करूँ? उन्होंने यहाँ आने की बात कही थी, परन्तु वे तो अन्य प्रेयसी के साथ विलासपरायण हो रहे हैं।

इस पन्द्रहवें प्रबन्ध की नायिका स्वाधीनभर्तृका है, जिसके गुणों से आकृष्ट होकर श्रीकृष्ण उसके सान्निध्य का त्याग न कर श्रीराधा की उपेक्षा कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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