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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत का दिव्य उपदेशब्रह्मस्वरुप में स्थित जीवन्मुक्त महापुरुष किसी बात का आग्रह नहीं करता, किसी का विरोध नहीं करता, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी वस्तु की कामना नहीं करता। वह सब प्राणियों से समान बर्ताव करता है। वह सबको समत्व की तराजू पर तौलता है। दूसरे के कर्मों की न प्रशंसा करता है और न निन्दा। अव आकाश की भाँति सबमें समभाव से स्थित रहता है। न वह किसी से डरता और न तो कोई उससे डरता है। न वह अच्छा करता है, न वांछा करता है। किसी भी प्राणी के प्रति 'यह पापी है' इस प्रकार की भावना उसके मन में नहीं आती। वाणी से वह किसी को पापी नहीं कहता। शरीर से वह किसी के प्रति घृणा का व्यवहार नहीं करता। जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान में कभी किसी प्रकार, किसी को पीड़ा नहीं पहुँचती, वही ब्रह्स्वरुप में स्थित है। जो पूजा करने वाले और मारने वाले दोनों के प्रति प्रिय अथवा अप्रिय बुद्धि नहीं रखता, वास्तव में वही महात्मा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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