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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
वाच: पल्लवयत्युमापतिधर: सन्दर्भशुद्धिं गिरां, अन्वय - उमापतिधर: (तन्नाामा कवि:) वाच: (वाक्यानि) पल्लवयति, (विस्तारयति; सन्दर्भे वागाड़म्बरं प्रदर्शयति, न तु काव्यगुणयुक्ता: करोति) शरण: (तन्नाामा कवि:) दुरूहद्रुते (दुरूहस्य दुर्वोधस्य सन्दर्भस्य द्रुते शीघ्रवचने) श्लाघ्य: (प्रशंसनीय:) [नतु प्रसादादिगुणयुक्ते]; श्रंंगारोत्तरसत्प्रमेयरचनै: (श्रृंगारोत्तराणि श्रृंगार-रसप्रधानानि सन्ति उत्कृष्टानि यानि प्रमेयाणि प्रबन्धा: तेषां रचनै:) कोऽपि [कवि:] आचार्य-गोवर्द्धन-स्पर्द्धी तेन तुल्य:) न विश्रुत: (न ज्ञात:) [नतु रसान्तर-वर्णने]; [तथा] कवि-क्ष्मापति: (कविराज:) धोयी (तन्नाामा कवि:) श्रुतिधर: (श्रुत्या श्रवणमात्रेणैव अभ्यासकर्त्ता इत्यर्थ:) नतु [स्वयं कवितारचनायाम्]; परन्तु जयदेव एव [नत्वन्य: कोऽपि कवि:] गिरां (वाचां) सन्दर्भशुद्धिं (विशुद्धग्रन्थनं) जानीते [अथवा दैन्योक्तिरियम्-गिरां सन्दर्भशुद्धिं किं जयदेव एव जानीते? न जानीते एव; यत्र उमापतिधरो वाच: पल्लवयतीत्यादि ॥4॥ अनुवाद - उमापति धर नामक कोई विख्यात कवि अपनी वाणी को अनुप्रासादि अलंकार के द्वारा सुसज्जित करते हैं। शरण नाम के कवि अत्यन्त क्लिष्ट पदों में कविता का विन्यास कर प्रशंसा के पात्र हुए हैं। सामान्य नायक-नायिका के वर्णन में केवल श्रृंगार रस का उत्कर्ष वर्णन करने में गोवर्द्धन के समान दूसरा कोई कवि श्रुतिगोचर नहीं हुआ है। कविराज धोयी तो श्रुतिधर हैं। वे जो कुछ भी सुनते हैं, कण्ठस्थ कर लेते हैं। जब ऐसे-ऐसे महान कवि सर्वगुणसम्पन्ना नहीं हो सके, फिर जयदेव कवि का काव्य किस प्रकार सर्वगुणसम्पन्न हो सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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