गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
नवाँ अध्याय
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । व्याख्या- भगवान के अनन्य भक्त न तो पूर्वश्लोक में वर्णित इन्द्र को मानते हैं और न अगले श्लोक में वर्णित अन्य देवताओं को मानते हैं। इन्द्रादि की उपासना करने वालों को तो नाशवान फल मिलता है, पर भगवान की उपासना करने वालों को अविनाशी फल मिलता है। देवताओं का उपासक तो नौकर की तरह है और भगवान का उपासक घर के सदस्य की तरह है। नौकर काम करता है तो उसे काम के अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घर का सदस्य काम करे अथवा न करे, सब कुछ उसी का होता है। बालक क्या काम करता है? भगवान भक्त को उसके लिये आवश्यक साधन-सामग्री प्राप्त कराते हैं और प्राप्त सामग्री की रक्षा करते हैं- यही भगवान का योगक्षेम वहन करना है। यद्यपि भगवान् सभी साधकों का योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अपने अनन्य भक्तों का योगक्षेम वे विशेष रूप से वहन करते हैं; जैसे- प्यारे बच्चे का पालन माँ स्वयं करती है, नौकरों से नहीं करवाती। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: । व्याख्या-‘त्रैविद्या माम्’[1], ‘अनन्यश्चिन्तयन्तो माम्’[2]और ‘तेऽपि मामेव’[3]-तीनों जगह भगवान के द्वारा ‘माम्’ पद देने का तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ, सब मेरा ही स्वरूप है। यदि साधक में कामना न हो और सबमें भगवद्बुद्धि हो तो वह किसी की भी उपासना करे, वह वास्तव में भगवान की ही उपासना होगी। तात्पर्य है कि यदि निष्कामभाव और भगवद्बुद्धि हो जाय तो उसका पूजन अविधिपूर्वक नहीं रहेगा, प्रत्युत वह भगवान का ही पूजन हो जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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