श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
प्रथम अध्याय
सञ्जय उवाच-
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥2:1॥
अनुवाद- सजंय ने कहा- महाराज! पाण्डवों की सेना को व्यूहाकार में अवस्थित देखकर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ॥2॥
भावानुवाद- सञ्जय ने धृतराष्ट्र के आन्तरिक भाव को समझ कर कहा कि आपकी इच्छानुसार युद्ध अवश्य ही होगा। परन्तु, इसका परिणाम धृतराष्ट्र के मनोरथ के विपरीत होगा - यह जानकर सञ्जय ‘दृष्ट्वा’ आदि शब्द कह रहे हैं। यहाँ ‘व्यूढं’ शब्द का तात्पर्य व्यूहरचनापूर्वक अवस्थित पाण्डवों की सेना से है। अतः राजा दुर्योधन अन्दर से भयभीत ‘पश्यैतां’ इत्यादि नौ श्लोकों को कह रहे हैं।।2।।
सा. वि. प्रकाशिका वृत्ति- धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे, किन्तु दुर्भाग्य वश उस समय वे धार्मिक एवं पारमार्थिक - दोनों ही दृष्टियों से रहित होने के कारण शोक और मोह से अभिभूत हो रहे थे। कहीं धर्म क्षेत्र के प्रभाव से पुत्र दुर्योधन पाण्डवों को आधा राज्य लौटा न दे - यह सोचकर वे निराश हो गये। परम धार्मिक एवं दूरदर्शी सञ्जय ने उनके मानसिक भाव को भाँप लिया।
यद्यपि सञ्जय यह जानते थे कि युद्ध का परिणाम धृतराष्ट्र के मनोनुकूल न होगा, तथापि उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्ता पूर्वक धृतराष्ट्र से इसे छिपाकर सान्त्वना देते हुए कहा- “दुर्योधन पाण्डवों से समझौता करने नहीं जा रहे है, बल्कि वह तो पाण्डवों की अतिशय दृढ़ व्यूह रचना को देखकर युद्ध विद्या के अपने गुरु आचार्य द्रोण के समीप स्वयं ही जाकर उनको वास्तविक परिस्थिति से अवगत करा रहा है।” आचार्य के समीप जाने के दो अभिप्राय हैं, एक तो वह पाण्डवों की सुदृढ़ व्यूह रचना को देखकर भयभीत था और दूसरा अपनी राजनैतिक कुशलता का परिचय देने के लिए गुरु द्रोणाचार्य को मानो मर्यादा देने गया। इससे वह राजनीति में निपुण होने के नाते राजा की पदवी के सर्वथा योग्य ही है। यह उसके कूटनैतिक व्यवहार से प्रतिपादित हो रहा है। ‘सञ्जय उवाच’ का यही तात्पर्य है।
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