श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥29॥
हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन ॥29॥
भावानुवाद- ज्ञानियों के समस्त सात्त्विक वस्तु ही उपादेय हैं, इसे बताने के लिए श्रीभगवान् बुद्धि आदि के तीन भेद बता रहे हैं।।29।।
प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी ॥30॥
हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृति मार्ग और निवृति मार्ग को, कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थ जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है ॥30॥
भावानुवाद- ‘भयाभये’- संसार तथा असंसार का हेतु।।30।।
यया धर्ममधर्मंञ्च कार्यंञ्चाकार्यमेव च ।
अयथावत् प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ॥31॥
हे पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ॥31॥
भावानुवाद- ‘अयथावत’- असम्यक्रूपसे।।31।।
अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ॥32॥
हे अर्जुन ! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी 'यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सम्पूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ॥32॥
भावानुवाद- ‘या मन्यते’ -जिसके द्वारा यह माना जाता है कि कुठार छिन्न करता है।।32।।
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