श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 503

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय

श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा: ॥2॥
श्रीभगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचार कुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं ॥2॥

भावानुवाद- पहले प्राचीन मत का आश्रय कर संन्यास और त्याग - इन दोनों शब्दों के भिन्न अर्थों को बता रहे हैं - ‘काम्यानाम्’ इत्यादि। ‘पुत्र की कामना से यज्ञ करेंगे’, ‘स्वर्ग की कामना से यज्ञ करेंगे’, इत्यादि काम्य कर्मों के स्वरूपतः त्याग को ही ‘संन्यास’ जानो। किन्तु, सन्ध्या-उपासना आदि नित्य कर्मों के त्याग को नहीं। समस्त काम्य और नित्य कर्मों में फल त्याग ही ‘त्याग’ है, किसी का स्वरूपतः त्याग नहीं। सभी श्रुतियाँ नित्य कर्मों के भी फल का प्रतिपादन करती हैं, जैसे - कर्म द्वारा पितृलोक प्राप्त होता है, धर्म करने से पाप दूर होते हैं इत्यादि। अतएव फल की कामना से रहित हो कर सभी कर्मों का अनुष्ठान ही त्याग है। किन्तु, संन्यास शब्द से फल कामना शून्य हो कर समस्त नित्य कर्मों का करना और काम्य कर्मों का स्वरूपतः त्याग करना जानना चाहिए - दोनों में यही भेद जानना चाहिए ।।2।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

श्रीभगवान कहते हैं- तत्त्व विद महापुरुषों को उक्त विषय में यह विचार है कि नित्य और नैमित्तिक कर्मों का स्वरूपतः त्याग न कर केवल सकाम कर्मों का स्वरूपतः त्याग करना ही संन्यास है तथा कुछ पण्डितों के अनुसार सकाम एवं नित्य-नैमित्तिक कर्मों का स्वरूपतः त्याग न कर केवल कर्मफल त्याग करना ही त्याग शब्द का तात्पर्य है। शास्त्रों के विभिन्न स्थानों में दोनों प्रकार के विचारों का विवेचन दृष्टिगोचर होता है, किन्तु यहाँ इस विषय में श्रीभगवान् का और उनके तत्त्वविद् भक्तों का विचार क्या है, यह जान लेने पर ही उपरोक्त विचारों का चरम सामञ्जस्य सम्भव पर है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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