श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 502

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय

अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥1॥
अर्जुन बोले- हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन् ! हे वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ ॥1॥

भावानुवाद- संन्यास, ज्ञान, कर्म आदि के तीन प्रकार, मुक्ति का निर्णय एवं गुह्यसारतम भक्ति के विषय में इस अध्याय में कहा गया है।

पिछले अध्याय[1] में श्री भगवान ने कहा- “मोक्ष कामी लोग फल की कामना से रहित होकर ‘तत्’ शब्द का उच्चारण करते हुए नाना प्रकार के यज्ञ, दान और तपस्या करते हैं।” भगवान् के इस वाक्य में संन्यासी को ही ‘मोक्षकामी’ कहा गया है। यदि संन्यासी को लक्ष्य न कर अन्य को लक्ष्य किया जाय, तो गीता[2]में कहे गये ‘आत्मवान् होकर समस्त फलों को त्याग कर वैदिक कर्मों का आचरण करो’ - इसके अनुसार वह त्याग ही कैसा है? संन्यासियों का संन्यास ही कैसा है? इस प्रकार विवेक वान् जिज्ञासु अर्जुन ने कहा - ‘संन्यासम्’ इत्यादि। ‘पृथक्’ - यदि संन्यास और त्याग इन दोनों शब्दों का पृथक्-पृथक् अर्थ हो, तो मैं उनके तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानने की इच्छा करता हूँ। आपके अथवा अन्य लोगों के मत में यदि दोनों के एक ही अर्थ हों तथापि मैं पृथक् रूप से उन्हें जानना चाहता हूँ। हे हृषीकेश! आप ही मेरी बुद्धि के प्रवर्त्तक हैं, अतः यह सन्देह आपकी ही प्रेरणा से उत्पन्न हुआ है। हे केशिनिषूदन! आपने जिस प्रकार केशी असुर का नाश किया, उसी प्रकार मेरे इस सन्देह का भी विनाश करें। हे महाबाहो! आप अति बल शाली हैं और मैं किञ्चित बल-सम्पन्न हूँ। इस रूप में साम्य रहने के कारण आपके साथ मेरा सखा का सम्बन्ध है, किन्तु आप सर्वज्ञत्व आदि धर्मों के साथ मेरा कुछ भी साम्य नहीं है। अतः आपके द्वारा प्रदत्त किञ्चित सख्य भाव के कारण ही मैं निःशंक होकर आपसे प्रश्न करने में समर्थ हुआ हूँ ।।1।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहीं-कहीं कर्म संन्यास का और कहीं-कहीं कर्म का स्वरूपतः त्याग न कर सब प्रकार के कर्मों के फल त्याग का उपदेश दिया है। स्थूल दृष्टि से इन दोनों में परस्पर विरोध-सा प्रतीत होता है। अर्जुन श्री कृष्ण द्वारा त्याग और संन्यास के यथार्थ तात्पर्य, उनमें भेद तथा वैशिष्ट्य के सम्बन्ध में प्रश्न कर स्थूल बुद्धि-सम्पन्न लोगों के सन्देह को दूर करना चाहते हैं। विशेषतः श्लोक में आये हुए ‘केशिनिषूदन’ ‘हृषीकेश’, ‘महाबाहो’ आदि सम्बोधनों का कुछ गूढ़ रहस्य है। कृष्ण ने भीषण आसुरी प्रवृत्ति वाले केशी नामक दैत्य का वध किया था। इसलिए वे महाबाहो या बलशाली हैं। इसीलिए अर्जुन कहते हैं कि आप मेरे सन्देह रूप दैत्य का विनाश करने में पूर्ण रूप से समर्थ हैं। आपकी अन्तः प्रेरणा से ही मेरे हृदय में यह संशय उदित हुआ है। मेरी समस्त इन्द्रियों के प्रेरक एवं प्रभु होने के कारण आप मेरे सारे सन्देहों को सम्पूर्ण रूप से दूर कर आत्म-तत्त्व, भगवत्-तत्त्व और भक्ति-तत्त्व को प्रकाशित करने में भी समर्थ हैं। यह इन तीन सम्बोधनों का गूढ़ तात्पर्य है। यदि कोई व्यक्ति अर्जुन की भाँति भगवान के शरणागत हो कर उनसे इस दिव्य तत्त्व-ज्ञान अर्थात प्रेम-भक्ति की प्रार्थना करता है, तो भगवान् उसे पूर्ण कर देते हैं ।।1।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 17/25
  2. 12/11

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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