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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- भगवान् गुणाधीश और माया के अधीश्वर हैं, सृष्टि आदि कार्यों में जड़ा-प्रकृति के अधिष्ठाता और निमित्त कारण भी हैं। उनके कटाक्ष द्वारा उद्बुद्ध होकर प्रकृति चराचर जगत का पुनः पुनः सृजन करती है। प्रकृति उनके अधीन होने के कारण उनसे सृजन शक्ति प्राप्त करती है, अन्यथा जड़ा-प्रकृति सृजन का कार्य नहीं कर सकती; जैसे किसी लोहे में अग्नि प्रवेश कर किसी वस्तु को जला देती है, अग्नि शक्ति रहित लोहा किसी भी वस्तु को जलाने में समर्थ नहीं है। अतएव कृष्ण ही जगत् के मूल कारण हैं। जड़-प्रकृति अजागल स्तन की भाँति केवल बाह्य दिखावे के लिए है।।10।।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11।।
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
भावानुवाद- अच्छा, सत्य ही अनन्त कोटि ब्राह्मण व्यापी सच्चिदानन्द-विग्रह कारणार्णवशायी महा पुरुष जो अपनी प्रकृति द्वारा जगत् की सृष्टि करने वाले के रूप में प्रसिद्ध हैं, वे आप ही हैं। किन्तु वसुदेव पुत्र आपके इस मनुष्य-शरीर का दर्शन कर कोई-कोई आपकी उत्कर्षता को स्वीकार नहीं करता है। अर्जुन के इस संशय का निवारण करते हुए श्री भगवान् कहते हैं- मेरे इस दृश्यमान मनुष्य शरीर, जो कि कारणार्णवशायी महान् पुरुषादि से भी उत्कृष्ट स्वरूप है, उसके परम भाव को नहीं जानकर ही वे लोग अवज्ञा करते हैं। कैसा स्वरूप? इसके उत्तर में कहते हैं- ‘भूत’ अर्थात् ब्रह्म जो कि सत्य-स्वरूप है, मैं उसका भी महेश्वर हूँ अर्थात् परम सत्य स्वरूप मैं हूँ। यहाँ ‘महेश्वर’ पद को ‘सत्यान्तर व्यवर्त्तक’ अर्थात् अन्य सत्य-निषेधक के रूप में जानना चाहिए। अमरकोष के अनुसार- ‘मुक्तो क्ष्मादावृते भूतम्’ अर्थात् ‘मुक्त’ क्ष्मा (पृथ्वी) द्वारा आवृत पदार्थ को भूत कहते हैं। गोपालतापनी श्रुति में वर्णन है- “वृन्दावन के अमर वृक्षों के कुंज में आसीत् एकमात्र सच्चिदानन्द विग्रह गोविन्द को मरुद् गण के साथ मैं परम स्तुति द्वारा तुष्ट करती हूँ। श्रीमद्भागवत[1]में भी ‘नराकृति परब्रह्म’ कहा गया है। मेरे इस मानुषी शरीर का सच्चिदानन्दमयत्व एकमात्र तेरे तत्त्व से अभिज्ञ भक्तों के द्वारा ही परिकीर्त्तित होता है एवं इस शरीर में ही मैं जो ब्रह्माण्डव्यापी हूँ - ये मेरे बाल्यकाल में मेरी माता श्री यशोदा ने दर्शन किया है। अथवा, ‘परं भावम्’ का तात्पर्य है- उत्कृष्ट सत्ता अर्थात् विशुद्ध सत्त्व सच्चिदानन्द रूप। अमरकोष में ‘भाव, सत्ता, स्वभाव, अभिप्राय’- इनका व्यवहार पर्यायवाची के रूप में देखा जाता है। ‘परमभाव’ को और विशेष भाव से दिखा रहे हैं - मैं ‘मम भूतमहेश्वरम्’ हूँ अर्थात् ब्रह्मादि जो मेरे सृष्ट भूत समूह हैं, उनका भी महान् ईश्वर हूँ। इसलिए जीव के समान मुझ परमेश्वर का शरीर मुझसे भिन्न नहीं है अर्थात् मैं ही तनु हूँ, साक्षात् ब्रह्म ही हूँ। श्रीमद्भागवत[2] में कथित है- शब्द ब्रह्म ने सच्चिदानन्द शरीर धारण किया। यह मेरे तत्त्व को जानने वाले श्री शुकदेव गोस्वामी की उक्ति है, अतएव तुम्हारे समान व्यक्तिगण (जिनको मेरा तत्त्व परिज्ञात है), इस पर विश्वास करते हैं ।।11।।
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