श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 265

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9।।
हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।

भावानुवाद - अच्छा, इस प्रकार विविध कर्म करने पर भी जीवों की भाँति आपका बन्धन क्यों नहीं होता है ? इसके उत्तर में श्री भगवान् ‘न च’ इत्यादि कह रहे हैं। सृष्टि आदि कर्मों में आसक्ति ही बन्धन का कारण है, किन्तु आप्त काम मैं आसक्त नहीं हूँ। इसीलिए कहते हैं- ‘उदासीनवत्’ अर्थात् जैसे कोई अन्य उदासीन व्यक्ति दूसरों के दुःख-शोकादि द्वारा संसृष्ट (संयुक्त) नहीं होता, वैसे ही मैं भी सृष्टि आदि कार्यों में उदासीन के समान रहता हूँ ।।9।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

“किन्तु, हे धनञ्जय! वे समस्त कर्म मुझे आबद्ध नहीं कर सकते हैं। मैं उन कर्मों में अनासक्त और उदासीनवत् रहता हूँ। किन्तु, वस्तुतः मैं उदासीन नहीं हूँ, बल्कि चिदानन्द में ही सर्वदा आसक्त हूँ। उस चिदानन्द की पुष्टिकारिणी मेरी बहिरंगा माया और तटस्था शक्ति ही इस भूत समूह की सृष्टि करती हैं। इसके द्वारा मेरा स्वरूप विचलित नहीं होता। ये भूतसमूह माया के वशीभूत होकर जो कुछ करते हैं, उससे मेरे शुद्ध चिदानन्द-विलास की ही पुष्टि होती है। जड़ीय कार्यों के सम्बन्ध में मेरा उदासीन भाव सहज ही परिलक्षित होता है।” - श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।9।।

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्त्तते।।10।।
हे कुन्ती पुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चार तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

भावानुवाद- यदि अर्जुन को संशय हो कि सृष्टि आदि के कर्त्ता आप इस प्रकार से उदासीन हैं - मुझे यह विश्वास नहीं हो रहा है, तो इस संशय को दूर करते हुए श्री भगवान् कहते हैं - ‘मया’ इत्यादि। ‘अध्यक्षेण मया’ - निमित्त-मात्र मेरे द्वारा प्रकृति समग्र चराचर जगत् को प्रसव करती है। यहाँ मेरी अध्यक्षता मात्र है, जिस प्रकार अम्बरीषादि राजाओं की प्रकृति ही राजकार्यो का निर्वाह करती है, यहाँ उदासीन राजा सत्ता मात्र हैं; जिस प्रकार उनके राज सिंहासन के सत्ता मात्र के बिना प्रकृति या प्रजागण कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं, उसी प्रकार मेरे अधिष्ठान-लक्षण अध्यक्षता के बिना जड़ा-प्रकृति भी कुछ भी करने में समर्थ नहीं है। ‘अनेन हेतुना’ अर्थात मेरे अधिष्ठान द्वारा यह जगत् पुनः पुनः प्रादुर्भूत होता है।।10।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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