श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
भक्ति के अतिरिक्त प्रायश्चित, ब्रह्मचर्य, तपस्यादि के द्वारा यह सम्भव नहीं है- ‘केचित् केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणाः’[1]और भी, ‘न तथा ह्यघवान् राजन् पूयते तप आदिभिः [2] श्री भक्ति रसामृत सिन्धु में केवला भक्ति को सर्वप्रथम क्लेशघ्नी कहा गया है। ‘क्लेशघ्नी’ का तात्पर्य पाप, पापबीज, अविद्या, प्रारब्ध, अप्रारब्ध - सबको सम्पूर्ण रूपेण विनाश करने वाली से है।
‘अप्रारब्धं फलं पापं कूटं बीजं फलोन्मुखम्।
क्रमेनैव प्रलीयते विष्णुभक्तिरतात्मनाम्।।’[3]
केवला भक्ति केवल स्थूल और सूक्ष्म उपाधियों को ही पवित्र नहीं करती, अपितु आत्मा को भी पवित्र और प्रसन्न करने वाली होती है- ‘ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति’। [4]भक्ति आत्माराम, आप्तकाम पुरुषों के भी आत्मारामत्व और आप्तकामत्व का त्याग कराकर उसे कृष्ण सेवानन्द में आकर्षित करती है- ‘आत्मारामश्च मुनयो’ [5]।
प्रत्यक्ष अनुभव स्वरूप- “जिस प्रकार भोजनकारी व्यक्ति को प्रत्येक ग्रास के साथ-साथ तुष्टि, पुष्टि और क्षुधा निवृत्ति होती है, उसी प्रकार साधक भक्त को भजन काल में अर्थात् साधन दशा में ही भक्ति, इष्ट देव की अनुभूति और विषयों से विरक्ति- ये समस्त एक साथ अनुभव होते हैं।”
‘भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्।।’[6]
भक्ति के अतिरिक्त कर्म, योग, ज्ञानादि साधकों को ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता है। ब्रह्म सूत्र में भी कहा गया है - ‘प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात्’ अर्थात् भक्ति में इतना सामर्थ्य है कि भक्ति के प्रारम्भ करने मात्र से अपना अनुभव प्रदान करती है।
सर्वधर्म- फलप्रद- भक्ति का अनुष्ठान करने से समस्त धर्मों का सम्पूर्ण फल तथा इसके अतिरिक्त वेद, उपनिषदादि श्रुतियों के प्रतिपाद्य भगवत्-प्रेम की भी प्राप्ति होती है। श्री गीता में कहे गये ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ - इस श्लोक के अनुसार समस्त धर्मों अर्थात् वर्णाश्रम धर्म, कर्म, ज्ञान, योगादि तथा शारीरिक और मानसिक समस्त पथों का परित्याग कर एक मात्र केवला भक्ति का आश्रय कर श्री कृष्ण का भजन करने से उक्त समस्त धर्मों का फल सरल सहज रूप में सुख पूर्वक पाया जाता है। यथा- ‘संसिद्धिः हरितोषणम्’ [7]और ‘सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽ´जसा’। [8] केवला भक्ति में अन्यान्य धर्मों का अनुष्ठान नहीं होने पर भी गुरु-शुश्रूषा आदि जीव का स्वरूपगत धर्म उसमें विद्यमान रहता है। श्रुति में भी ‘आचार्यवान् पुरुषो वेद’ आदि मन्त्रों के द्वारा उक्त मत की पुष्टि होती है। देवर्षि नारद की उक्ति से भी इसका प्रतिपादन होता है -
‘यथातरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या।।’[9]
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