श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्त्तुमव्ययम्।।2॥
यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है। यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।
भावानुवाद- और भी, यह ज्ञान राज विद्या है। विद्या या उपासना विविध प्रकार की होती है, किन्तु भक्ति ही उनका राजा है, यह गुह्य विषयों में राजा है अर्थात् भक्ति मात्र ही अतिगुह्य है, अनेक प्रकार की होने पर भी विज्ञान सहित यह ज्ञान उन सबका राजा है अर्थात् अति गुह्यतम है। सभी पापों का प्रायश्चित होने के कारण यह पवित्र है। यह ‘त्वं’-पदार्थ के ज्ञान से भी अधिक पवित्रकर है। श्रीपाद मधुसूदन सरस्वती कहते हैं- “हजारों जन्मों से सचित समस्त प्रकार के पाप समूह के स्थूल और सूक्ष्म अवस्थाओं तथा उनके कारण - अज्ञान को निमेष मात्र से छेदन करने वाली है, अतएव यह सर्वोत्तम पावन है।” जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सके, वही ‘प्रत्यक्षावगमम्’ है- “जैसे भाजन में तल्लीन व्यक्ति को प्रत्येक ग्रास के संग-संग भोजन जनित सुख, उदर पूर्ती एवं क्षुधा-निवृत्ति जनित तुष्टि - ये तीनों फल एक साथ प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार हरिभजन परायण व्यक्ति को भजन के संग-संग प्रेम, परमेश्वर का अनुभव एवं विषयों से विरक्ति- ये तीनों ही एक साथ प्राप्त होते हैं।” [1] एकादश स्कन्ध की इस उक्ति के अनुसार भजन के अनुरूप भगवत-अनुभव प्राप्त होता है। यह ‘धर्म्यं’ है अर्थात् धर्म के बहिर्भूत नहीं है।
अन्य समस्त धर्मों के नही करने पर भी इससे सर्व धर्म सिद्ध होते हैं। देवर्षि नारद ने कहा है- “जैसे वृक्ष के मूल को जल से सींचने से वृक्ष के तना, शाखा, प्रशाखा इत्यादि समस्त ही तृप्त होते हैं, उसी प्रकार एकमात्र भगवान अच्युत की आराधना से ही अन्यान्य सबकी उपासना हो जाती है।”[2] ‘कर्त्तुं सुसुखम्’- कर्म-ज्ञानादि के समान भक्ति में काय-मन-वाक्य द्वारा अधिक कष्ट नहीं है। श्रवण-कीर्तनादि भक्ति में केवल कान आदि इन्द्रियों का कार्य है। निर्गुण होने के कारण भक्ति कर्म, ज्ञान आदि के समान नश्वर नहीं है।।2।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
इस नवें अध्याय में निर्गुण और केवला भक्ति का वर्णन किया गया है। यह केवला भक्ति रूप ज्ञान सर्व विद्या चूड़ामणि, परम गोपनीय, सर्वापेक्षा पवित्रकारी, प्रत्यक्ष अनुभव स्वरूप, सर्वधर्म-फलप्रद, सुख साध्य तथा अक्षय फल युक्त है।
यहाँ विद्या शब्द का तात्पर्य ‘उपासना’ से है, अतः यह सभी प्रकार की उपासनाओं में श्रेष्ठतम है। समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ होने के कारण ही इन केवला भक्ति की राज विद्या तथा सब प्रकार के गुह्य विषयों में श्रेष्ठतम होने के कारण इसे राजगुह्य कहा गया है।
पवित्रमिदमुत्तमम- दान, तर्पण, चान्द्रायण व्रत आदि प्रायश्चित्तों के द्वारा पापों का क्षय होने पर भी आत्यन्तिक रूप से उनका क्षय नहीं होता। यहाँ तक कि तपस्या और ब्रह्मचर्यादि के द्वारा पापों का क्षय होने पर भी पुनः पाप-अंकुर के उद्गम होने की सम्भावना रहती है। किन्तु श्रीमद्भागवत आदि शास्त्रों के अनुसार केवला भक्ति के द्वारा आत्यन्तिक रूप से पापों का ध्वसं हो जाता है। यहाँ तक कि केवला भक्ति के आनुषंगिक फल से ही पापों का समूल ध्वंस हो जाता है अर्थात् पाप करने की वासना भी नष्ट हो जाती है।
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