श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टम अध्याय
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।
हे अर्जुन ! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो।
भावानुवाद- इन दोनों मार्गों का ज्ञान विवेक उत्पन्न करता है, अतएव वैसे ज्ञानी की प्रशंसा करते हुए ‘नैते’ इत्यादि कह रहे हैं।
वे अर्जुन से कहते हैं- तुम योग युक्त अर्थात् समाहित चित्त वाले होओ।।27।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
“इन दोनों मार्गों के तात्तिवक पार्थक्य से अवगत होकर, इन दोनों से अतीत जो भक्ति मार्ग है- उसका अवलम्बन कर योग युक्त व्यक्ति कभी भी मोह ग्रस्त नहीं होते हैं अर्थात दोनों ही मार्गों को क्लेशप्रद जानकर अनन्य भक्ति योग का अवलम्बन करते हैं। हे अर्जुन! तुम उसी योग का अवलम्बन करो।”- श्री भक्ति विनोद ठाकुर।।27।।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।
भावानुवाद- इस अध्याय में कथित अर्थ के ज्ञानफल को ‘वेदेषु’ इत्यादि से बता रहे हैं। ‘तत् सर्वम् अत्येति’ अर्थात् उन समस्त फलों का अतिक्रमण कर योगी अर्थात् भक्तिमान् उनसे भी श्रेष्ठ आदि-अप्राकृत श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त होते हैं।।28।।
पहले भी भक्तों का श्रेष्ठत्व कथित हुआ है। किन्तु, अभी वह और भी स्पष्ट रूप से कहा गया। अनन्य भक्तों का श्रेष्ठत्व ही इस अध्याय में प्रतिपादित हुआ है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय की साधुजन सम्मता भक्तानन्ददायिनी सारार्थ वर्षिणी टीका समाप्त
श्रीद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय की सारार्थ वर्षिणी टीका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।
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