श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥11॥
मैं बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ। हे भरतश्रेष्ठ[1]! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।
भावानुवाद- ‘काम’ का तात्पर्य है-जीविका आदि की अभिलाषा एवं ‘राग’ का तात्पर्य है-क्रोध। इन दोनों से उत्पन्न क्रिया यहाँ ग्राह्य नहीं है। ‘धर्माविरुद्ध’ का तात्पर्य है-अपनी पत्नी से ही पुत्रादि उत्पत्ति मात्र के उपयोगी काम।।11।।
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥12॥
तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों। एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतन्त्र। मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।
भावानुवाद- इस प्रकार वस्तु के कारणभूत, सारभूत राक्षसादि किसी-किसी विभूति के बारे में कथित हुआ है, किन्तु और अधिक विस्तार का क्या प्रयोजन है? वस्तुमात्र ही मेरे अधीन है एवं मेरी विभूति है। इसके लिए ही कहते हैं-‘ये चैव’ इत्यादि। शम-दम आदि तथा देवता आदि सात्त्विक भाव हैं, हर्ष-दर्प आदि एवं असुरादि राजसिक तथा शोक-मोहादि और राक्षसादि तामसिक भाव हैं। वे मुझसे ही हैं, किन्तु वे मेरी प्रकृति के गुण-कार्य कहलाते हैं। अतः मैं उन सबमें (गुण-कार्यों में) विद्यमान नहीं हूँ अर्थात् जीवों की भाँति मैं उनके अधीन नहीं हूँ, किन्तु वे मेरे अधीन होकर ही विद्यमान हैं।।12।।
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