श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 166

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥
निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।

भावानुवाद- कर्म के करने में अनासक्ति और आसक्ति ही मोक्ष और बन्धन का कारण है, इसके लिए ही ‘युक्त’ इत्यादि कह रहे हैं। युक्त-योगी अर्थात् निष्काम कर्मी निष्ठाप्राप्त शान्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं। अयुक्त अर्थात् सकाम कर्मी काम प्रवृत्तिवश संसार में बँधते हैं।।12।।


सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।

भावानुवाद- अतएव ‘ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी’ [1] इस पूर्वोक्त कथनानुसार वस्तुतः अनासक्त भाव से कर्म करने वाला ही संन्यासी कहलाता है। इसके लिए ही ‘सर्वकर्माणि’ इत्यादि कह रहे हैं। समस्त कर्मों को मन के द्वारा सम्यक् रूप से त्यागकर शरीर आदि के बाह्य कार्यों को करने पर भी वह जितेन्द्रिय होकर सुखी रहता है। वह कहाँ रहता है? इसके उत्तर में कहते हैं-वह नवद्वार वाले पुर अर्थात् अहंभाव से रहित शरीर में रहता है देही का तात्पर्य उस जीव से है, जिसे ज्ञान उत्पन्न हो चुका है। ऐसा जीव यह जानकर कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता है कि वस्तुतः मैं कर्मसुख का कर्ता नहीं हूँ और यह जानक कर्म करवाते हुूए भी कर्म नहीं करवाता है कि मुझे उसका प्रयोजन भी नहीं है।।13।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

मनुष्य शरीर गृह के समान है-‘गृहं शरीरं मानुष्यम्’[2]। यह विषय श्रीमद्भागवत के पुरन्जन उपाख्यान में विशेषरूप से द्रष्टव्य है। इस मनुष्य शरीररूप गृह के नौ द्वारा निम्नलिखित हैं-दो नेत्र, दो कर्ण, दो नासिका छिद्र, एक मुख-सिर के ये सात तथा नीचे के मलद्वार तथा जननेन्द्रिय। योगी नौ द्वारविशिष्ट देह से भिन्न जीवात्मा या स्व-स्वरूप का दर्शन करते हैं। वे राहगीर की भाँति इस धर्मशालारूप शरीर में रहकर भी इसमें ममता या आसक्ति नहीं रखते। वे समस्त इन्द्रियों के अधिपति भगवान् की सेवा करते हैं।।13।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 5/3
  2. श्रीमद्भा. 11/19/43

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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