श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।10॥
जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
भावानुवाद- और, जो आसक्ति त्यागकर अर्थात् अभिमान रहने पर भी कर्म में आसक्ति त्याग करते हुए ब्रह्म अर्थात् मुझ परमेश्वर में कर्मों को अर्पित करते हैं, वे कर्म-मात्र से लिप्त नहीं होते हैं। यहाँ ‘पाप’ का प्रयोग उपलक्षण के रूप में हुआ है।।10।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
शुद्ध आत्मा का प्राकृत कर्म से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। निष्काम कर्मयोगी चित्तशुद्धि आदि के क्रम से तत्त्वविद् होते हैं, उस समय वे आत्म-तत्त्व का अनुभवकर दैहिक क्रियाओं को करने पर भी ऐसी उपलब्धि करते हैं कि मैं कुछ भी नहीं करता, मेरे पूर्व संस्कार के अनुरूप ईश्वर की प्रेरणा से जड़ देह की समस्त क्रियाएँ स्वभावतः निष्पन्न हो रही हैं, जड़देह रहने के कारण अभी कर्मों में कुछ कर्तापन का भाव दीखने पर भी शरीर के विगत होने पर सिद्धि के समय कर्म में कर्तापन का भाव सम्पूर्ण रूप से दूर हो जाएगा। ऐसे महात्माओं को कोई भी कर्म संसार-बन्धन में नहीं डाल सकता।
श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने भी ऐसा कहा है-“साधक भक्त देह सम्बन्धी समस्त क्रियाएँ कर्तापन का अभिमान दूरकर पूर्व-पूर्व अभ्यास के कारण करते हैं।।”10।।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥11॥
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
भावानुवाद- योगिगण केवल इन्द्रियों से भी कर्म करते हैं, जैसे-यद्यपि हवि के अर्पण के समय मन कहीं अन्यत्र भी होता है, परन्तु ‘इन्द्राय स्वाहा’ इत्यादि बोलते हुए कर्म चलता रहता है। ‘आत्मशुद्धये’ अर्थात मन की शुद्धि के लिए ही योगिगण कर्म करते हैं।।11।।
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