रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 99

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


बस, उसी के द्वारा ये सारे काम हुये। नहीं तो यह काम हो नहीं सकते। भगवान की यह लीला-रासलीला हुई योगमाया के प्रकाश में, योगमाया के द्वारा। अघटन क्या हुआ इसमें? अघटन क्या, जो कहीं कल्पना नहीं हो सकती, वह हुआ। भगवान का मायामुग्ध हो जाना ही अघटन घटना है।

इसलिए भगवान अपने ऐश्वर्य वीर्यादि महाशक्ति के द्वारा जो अघटन करते हैं वह घटना भगवान को मोहित नहीं कर सकती। वह तो जगत में अघटन घटना करते हैं। विश्व को बना दें, बिगाड़ दें, कुछ भी कर दें। अघटन घटना हो जाय हमारी दृष्टि में, उससे भगवान मुग्ध नहीं होते। वह तो सावधान रहते हुये सब काम करते हैं परन्तु रासलीला में यदि भगवान स्वयं मुग्ध नहीं होते यदि वे जगत्पति होकर अपनी स्वरूपाशक्ति की घनीभूतमूर्ति गोपरमणियों के ‘उप’ सजकर लीला न करते तो इस अघटनघटनापटीयसी भगवान की स्वशक्ति का प्रकाश नहीं होता। भगवान ने अपनी माया से मुग्ध होकर गोपर मणियों में ‘पर’ भावना करके निभृत यमुना-पुलिन पर रासक्रीडा का रसास्वादन किया। रासलीला श्रीभगवान की आत्ममोहन लीला है।

माया के तीन कार्य हुये-

  1. विमुखमोहन
  2. उन्मुखमोहन और
  3. आत्ममोहन।

यह रासलीला ही एक ऐसी है जहाँ भगवान का आत्ममोहन देखा जाता है। तथापि रासलीला-सम्पादन के लिये यह नहीं कि यह नयी शक्ति बनी है। भगवान की आत्ममोहिनी शक्ति उनमें वर्तमान हैं जब चाहें अपने को मोहित कर लें जैसे चद्दर पास हो तो ओढ़कर सो जाय पर हमेशा ओढ़ने की जरूरत न हो तो सुरक्षित रख दें। इसी प्रकार उनकी अपनी योगमाया है, अपनी आत्ममोहिनी शक्ति है। जब चाहें अपने आपको विमोहित कर लें। तो ‘योगमायामुपाश्रितः’ इसका अर्थ यह है कि ऐश्वर्यादि षडविध महाशक्ति निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी अपनी अघटन घटना पटीयसी आत्मविमोहिनी योगमाया शक्ति का पूर्ण विकास करते हैं और अपनी अद्वितीय मुख्य स्वरूपा अभिन्न व्रजरमणियों के साथ रासक्रीडा करने की इच्छा करते हैं। यही ‘भगवानपि ता रात्रीः..................... योगमायामुपाश्रितः’ की अभिसंवादिनी व्याख्या है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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