रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 98

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


यह जो गोपियाँ हैं यह कहती हैं कि हम सबका परित्याग करके आपके समीप आयी हैं और भगवान भी उनको सामने देखकर

जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियाः।।[1]

इत्यादि कार्यो से विरत होने का उपदेश करते हैं। अतएव भगवान भी गोपियों का परवधू ही जानते हैं। मायामुग्ध है नहीं; सब अपना ही रूप हैं। इससे यह बात सिद्ध होती है कि श्रीरासलीला में भगवान की ही एक मात्र अनन्य अन्तरंग लीला होने पर भी भगवान समझकर ये चीज नहीं हुई। इसीलिये ‘ज्ञानविद्धा संगता’ आगे चीज आयेगी इस सिद्धि के लिये।

इसमें कुछ ऐसे विषय भी हैं कि उन सबको कहने में भी गड़बड़ होती है मन में और खुलता भी नहीं है कहे बिना। कहते हैं कि निभृत-यमुना पुलिन पर गंभीर रजनी में यह लीला क्यों होती है? अगर यह भाव न होता भगवान का तो यह लीला घर के आँगन में खूब मजे में होती। या वे इच्छा करते तो अपनी ऐश्वर्य शक्ति के प्रकाश के द्वारा रासलीला चाहे जैसे कर सकते थे। सब जगह वह अन्धकार फैला देते और कोई जान भी नहीं पाता। भगवान यह सब न करके श्रीगोपांगनाओं के प्रेमानुरूप भाव से वह जैसे ‘उप’ मानती हैं इसी प्रकार ‘पर’ मानते हुए और स्वयं सर्वजगत्पति सर्वान्तरात्मा, जीव मात्र के नित्य आत्मा सबके अन्तरात्मा के स्वरूप ने ‘उप’ के भाव से ‘उप’ की तरह से अति गोपन निभृत-यमुना-पुलिन पर रासक्रीडा की। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि भगवान के साथ विविध मधुरोचित लीला-विहारादि करके उनका आनन्द वर्धन करने के लिये ही गोपियों को भगवान ने मायामुग्ध किया और स्वयं भी मायामुग्ध हुये। श्रीभगवान ने भी गोपियों की प्रेमोचित सेवा ग्रहण करने के लिये अपने को मायामुग्ध कर लिया अन्यथा गोपियों की मनोभावोचित सेवा कभी नहीं होती।

इसलिये भगवान ने अपनी माया से आत्ममुग्ध हेाकर यह काम किया। बहिर्मुख जीवों को मोहित करने के लिये जैसे भगवान की बहिरंगा माया और भक्तों को मोहित करने के लिये जैसे भगवान की अन्तरंगा माया का अस्तित्व सिद्ध होता है उसी प्रकार भगवान को भी अपने माया से मुग्ध होते देखा जाता है और यह अन्तरंग माया का ही एक स्वरूप है कि जिसमें भगवान स्वयं मुग्ध हो जाते हैं।

‘भगवानपि ता रात्रीः............ योगमायामुपाश्रितः’ इत्यादि श्लोकों में योगमाया जो विशेषण दिया यह भगवान की अभिन्न माया ही है। यह योगशक्ति है। इस माया से मोहित होकर गोपियों ने सर्वजगतपति भगवान को ‘उप’ माना और भगवान में भी गोपियों के प्रेम के अनुरूप ही स्वयं सर्वात्मक होते हुए भी उनको ‘पर’ माना। श्रीपाद् सनातनगोस्वामीजी, जीवगोस्वामी इत्यादि वैष्णवाचार्यो ने योगमाया का यहाँ बताया अघटनघटनापटीयसी स्वयं शक्ति। जो भगवान के इंगित पर ही भगवान की इच्छा के अनुसार कार्य करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।29।26

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