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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान की इस लीला पर विचार करने से यह देखा जाता है कि उनकी माया उनके चरणों में एकान्त शरणागत और निरन्तर उनके सेवा-परायण रहने वाले भक्तों में भी मोह पैदा कर देती है। तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि भगवान की माया से उनके चरणाश्रित और चरण-सेवन-विमुख दोनों प्रकार के लोग तो मायामुग्ध या मोहित होते हैं। तो माया के दो रूप हुए-उन्मुख मोहिनी और विमुख मोहिनी। जो भगवान के सन्मुख है उनको मोहित करने वाली और जो भगवान से विमुख हैं उनको मोहित करने वाली। माया की दो वृत्तियाँ हुई-उन्मुख मोहिनी वृत्ति और विमुख मोहिनी वृत्ति। यह भगवान की दो प्रकार की माया है। दो प्रकार का भेद स्वीकार कर लेने के बाद सिद्ध हो जाता है कि - मायामेतां तरन्ति ते-मामेव ये प्रपद्यन्ते’[2] यह विमुख मोहिनी माया है। तो भगवान की यह माया किनको मोहित करती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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