रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 94

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


श्रीकृष्ण मानों सूर्य हैं और माया मानो घोर अन्धकार है। जहाँ कृष्ण है वहाँ माया का अधिकार रहता नहीं। अगर माया का अधिकार है तो कृष्ण वहाँ हैं ही नहीं। जिस जीव के जीवन में, मन में कृष्ण बस गये उस जीव के जीवन में माया रहेगी नहीं और माया नहीं रहेगी तो बहिर्मुख जीवों की भाँति उनकी इन मायिक पदार्थों में प्रेम आसक्ति रहेगी नहीं। यह सिद्धान्त है। आज यहाँ यदि मायामुग्ध जीवों की भाँति इनमें जो मोह दीखता है आज तो मालूम देता है कि किसी की माया से ये मुग्ध है। तो भई! ऐसी कौन-सी संसार में माया है जो भक्तों को मुग्ध करे? सोचा बलदेव जी ने बस! ध्यान में आ गयी बात। यह सर्वेश्वर श्रीकृष्ण की माया से मुग्ध हैं और उन्हीं की माया से मैं भी मुग्ध हूँ। बस! इसके बाद कुछ बोलने की बात नहीं। यह बलदेवजी के वाक्य हैं।

केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी।
प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी।।[1]

भगवान की इस लीला पर विचार करने से यह देखा जाता है कि उनकी माया उनके चरणों में एकान्त शरणागत और निरन्तर उनके सेवा-परायण रहने वाले भक्तों में भी मोह पैदा कर देती है। तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि भगवान की माया से उनके चरणाश्रित और चरण-सेवन-विमुख दोनों प्रकार के लोग तो मायामुग्ध या मोहित होते हैं। तो माया के दो रूप हुए-उन्मुख मोहिनी और विमुख मोहिनी। जो भगवान के सन्मुख है उनको मोहित करने वाली और जो भगवान से विमुख हैं उनको मोहित करने वाली। माया की दो वृत्तियाँ हुई-उन्मुख मोहिनी वृत्ति और विमुख मोहिनी वृत्ति। यह भगवान की दो प्रकार की माया है। दो प्रकार का भेद स्वीकार कर लेने के बाद सिद्ध हो जाता है कि - मायामेतां तरन्ति ते-मामेव ये प्रपद्यन्ते’[2]

यह विमुख मोहिनी माया है।

तो भगवान की यह माया किनको मोहित करती है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।13।37
  2. गीता 7।14

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