रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 95

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

Prev.png
स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


‘कृष्ण’ भूलि सेइ जीव, अनादि-बहिर्मुख।
अतएव माया तारे देय संसार-दुःख।।[1]
श्रीकृष्ण को भूलकर अनादिकाल से यह जीव बहिर्मुख हो रहा है। इसी से यह माया में आबद्ध होकर संसार के दुःखों में पड़ा रहता है लेकिन
ताते कृष्ण भजे, करे गुरुर सेवन।
माया जाल छुटे, पाये कृष्णेर चरण।।[2]

सीधी बात जो श्रीकृष्ण को भजे और श्री गुरु के चरणों का सेवन करे वह माया मुक्त हो जाता है। गुरु वह जो श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दे। नहीं तो गुरु होते हैं केवल भार। श्रीकृष्ण के चरणों में जाते ही माया का जाल छूट जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो कृष्ण बहिर्मुख हैं वे ही नाना प्रकार से माया से पराभूत होते हैं और कृष्ण चरण का भजन करने से उनकी माया से मुक्ति हो जाती है। किन्तु जो भगवान के चरणों में शरणागत हैं एवं सेवा परायण हैं, उन लोगों का इस विमुख मोहिनी माया से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे लोग जो हैं-भगवान के चरणाश्रित भक्त वे सेवा करने की इच्छा करते हैं तो क्या होता है कि अपनी इच्छानुसार सेवा कराने के लिये भगवान स्वयं उन्मुख मोहिनी माया से उन जीवों को मुग्ध कर लेते हैं। उनके सन्मुख हुए है न? अब उनको मुग्ध करना और तरह का है। वे तो संसार में फँसे और ये भगवान में फँसे। भगवान अपने में उनको फँसा लेने के लिये अपनी उन्मुख मोहिनी माया से उनको मुग्ध कर लेते हैं।

मुग्ध क्या करना है? जैसे किसी ने भगवान को बेटा समझा-यह भी उन्मुख मोहिनी माया है यह भी नहीं तो वह चराचर जगत्पति जो स्वयं भगवान नित्य सच्चिदानन्दघन हैं, उनको बेटा समझा। क्यों बेटा समझे? क्योंकि लीला कार्य की संगता के लिये उन्मुख मोहिनी माया की आवश्यकता हुई। किसी ने बेटा समझा, किसी ने सखा समझा, किसी ने प्राणवल्लभ समझा और ठीक इन्हीं के भावों से भगवान के साथ व्यवहार किया। अगर यह माया बीच में न होती, शक्ति न होती तो न कोई बेटा समझता, न बाप समझता और यह लीला होती ही नहीं। लीला की संगता के लिये उन्मुख मोहिनी लीला की आवश्यकता है। किसी के बेटे बन गये, किसी को बाप बना लिया। बेटा-बाप में योग शक्ति ने हो-योगेश्वर का प्राकट्य न हो तो यह लीला सम्पन्न होती नहीं। इसलिये भगवान ने उन्मुख मोहिनी माया से अपने भक्तों के प्रेमानुरूप उनकी सेवा ग्रहण करने के लिये उनको माया से मुग्ध किया और उनकी मनोवासना को पूर्ण किया। भगवान की माया से उनके चरणाश्रित और बहिर्मुख दोनों ही प्रकार के जीव मोहित होते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चै.च. 2।20।104
  2. चै. च. 2।22।18

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः