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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
अगर उस समय के व्रज के जीव, यहाँ की गायें, यहाँ के गोप, यहाँ की गोपियाँ, यहाँ के पशु-पक्षी, यहाँ की भूमि-ये यदि मायिक होती और ये जीव यदि बहिर्मुख होते तो इनको भगवान का सानिध्य प्राप्त होता ही नहीं। बहिर्मुख जीव ही भगवान को छोड़कर भोगों से, अपने पति-पुत्रों से प्रेम करते हैं। यह बहिर्मुखता का लक्षण है। जो अन्तर्मुख हैं उनकी सारी प्रीति, सारा प्रेम रहता है भगवत-चरणों में समर्पित और जो बहिर्मुख जीव हैं उनकी वृत्ति, उनकी प्रीति, उनका स्नेह, उनकी आसक्ति रहती है घर में, पुत्रों में, घर की चीजों में, सामान में, मकान में, जमीन में और जिनको सन्तान मानते हैं उनमें। बलदेवजी ने देखा कि ये तो बहिर्मुख जीव है नहीं। यह हैं तो भगवान के सारे-के-सारे सेवक तो आज ये गायें और ये गोपांगनाएँ अपने बालकों से और अपने बछड़ों से प्रेम कैसे करनी लगीं? यह किसकी माया से मुग्ध हैं। यह बलदेवजी के मन में आया। क्यों यह शंका आयी? इसलिये कि श्रीकृष्ण भक्त माया से मुग्ध होते नहीं। यह बहिर्मुख जीव तो माया से मुग्ध होते हैं और भगवान के जो भक्त हैं उन पर यहाँ की चीज है। व्रज के रहस्य को समझने के लिये यह देखना है कि जो यहाँ की माया से बद्ध है, जो यहाँ की माया के वशीभूत हैं, जो यहाँ के पदार्थों में, प्राणियों में आसक्ति-प्रीति रखते हैं वो मायिक जीव कृष्ण भक्त ही नहीं है। जो कृष्ण भक्त हैं वे इस माया से मुग्ध होते नहीं। इस माया से परे रहते हैं। क्यों? चैतन्य महाप्रभु के जीवन में है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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