रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 92

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


श्रीचैतन्यमहाप्रभु के सिद्धान्तानुसार-माया और योगमाया यह द्विविध नाम आते है।

मायामुग्ध-जीवेर नाहिं स्वतः कृष्ण ज्ञान।[1]

तथा

योगमाया चिच्छक्ति विशुद्ध सत्त्व परिणति।[2]

मायामुग्ध हो जीव है उनको स्वयं श्रीकृष्ण का ज्ञान नहीं होता। गुरुचरणाश्रित-भगवच्चरणाश्रित होने पर भगवान की कृपा से माया का अपसरण होने से उनको ज्ञान होता है। कृष्ण को पहचानते हैं। योगमाया भगवान की चित शक्ति है। यह विशुद्ध सत्त्व में परिणित होकर भगवान के साथ रहती हैं। भगवान का काम करती रहती है। इसलिये यह दो नाम और इनके दो भेद हैं। इसके बाद इनके सम्बन्ध में बहुत अधिक और विवेचन है। भगवान की लीला में देखा गया है कि-

इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः।
वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः।।[3]

माँ यशोदा को पति पुत्रादि के ममता-पाश से छूटने के लिये प्रार्थना करते हुए देखकर सर्वनियन्ता सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने वैष्णवी माया का विस्तार किया और उससे यशोदा मैया का जो स्नेह था, पुत्र से, वह सौ-सौ गुना और बढ़ गया। उन्होंने मुँह में क्या-क्या देखा, सब बातों को भूलकर वह कहने लगीं कि न मालूम यह क्या इसके मुँह में दीख गया। यह कही किसी असुर का काम तो नहीं; तो जल्दी से गोद में उठाकर स्तनपान कराने लगीं कि मुँह में कुछ होगा तो इस स्तन के दूध के द्वारा सारा-का-सारा चला जायेगा। इन्होंने माता को मोहित कर लिया। किसलिये मोहित किया? कि रसभंग न हो। भगवान की इस लीला से देखा जाता है कि उनके एकान्त भक्त और निरन्तर सेवा कार्य में लगी हुई यशोदा मैया भी उनकी वैष्णवी माया से मुग्ध हो जाती हैं और ब्रह्म मोहन लीला में श्रीकृष्ण जब अपने आप असंख्य गोपबालक और गोवत्सरूप धारण करके गोष्ठ में क्रीडा कर रहे हैं तब एक दिन श्रीकृष्ण ही मानो द्वितीय मूर्ति बलराम बने हुए थे। भगवान की दूसरी मूर्ति बलराम जी-संकर्षणजी ने यह देखा कि ये व्रजवासी, गायें और ग्वाले-गोपियाँ श्रीकृष्ण की उपेक्षा करके अपने-अपने बालकों और गोवत्सों को इतना प्यार क्यों करते हैं? नयी चीज इन्होंने देखी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चै.च. 2।20।107
  2. चै.च. 2।21।85
  3. श्रीमद्भा. 10।8।43

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