रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 8

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन

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शरद पूर्णिमा पर दिया गया एक प्रवचन


इसी परम त्याग की परम ऊँची जो समर्पण की लीला है उनमें आपस में ही। दूसरे और कोई नहीं है। यह ख़ाली लोगों को दिखाने के लिये दो बने हैं लेकिन हैं एक ही। कृष्ण अपने आप ही लीला करते हैं पर यह दिखलाया है इसमें कि कितना ऊँचे-से-ऊँचा त्याग होना चाहिये। जो भगवान की ओर जाना चाहता है उस साधक में।

यह उल्टी बात है कि लोग देखते हैं कि इसमें भोग ही भोग है पर इसमें तो केवल त्याग ही त्याग है। इसमें कहीं भोग है ही नहीं। यह तो इसी त्याग से ही आरम्भ होता है और त्याग में इसकी पराकाष्ठा है। जब सारा-का-सारा त्याग हो करके श्रीकृष्ण के सुख में जाकर विलीन हो गया। उनका जीवन, उनकी क्रिया, उनके सारे काम, उनकी कुल-चेष्टायें श्रीकृष्ण में जाकर विलीन हो गयीं। इस प्रकार का था इनका त्यागमय जीवन।

तीन बात करनी होगी अगर किसी को गोपी बनना हो तब। साड़ी, लहँगा नहीं मँगाना है। हम सब गोपी बन सकते हैं।

  1. अपने मन से जगत को निकाल देना।
  2. भगवान को देने के लिये मन को तैयार कर देना।
  3. किसी भी कारण से, किसी भी हेतु को लेकर कहीं पर भी अटकने की भावना न करना।

जहाँ तक हमारे मन में हमारे विषय भरे हैं, जहाँ तक विषयों को निकाल करके भी अगर हम ज्ञान-विज्ञान की ओर जाते हैं तो भगवान को अपना मन देना नहीं चाहते हैं। वहाँ भी भगवान मन नहीं लेते हैं। मन अमन हो जाता है, मन मर जाता है, मिट जाता है पर मन भगवान का नहीं होता है और तीसरी बात जो सबके लिये आवश्यक है- अटकना। यह अटकना गोपी में नहीं है। ये कहीं भी अटकी नहीं। न गहनों ने अटकाया, न कपड़ों ने अटकाया, न भोजन ने अटकाया, न घरवालों ने अटकाया। एक का अटकाया वह पहले पहुँच गयी।

अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।29।9

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