‘शिशून् पयः पाययन्त्यः’- शिशुओं को दूध पिलाती हुई भी छोड़कर भाग गयीं। शिशु रोते रहे और
‘काश्चितद् पतीन् शुश्रूषन्त्यः’- कुछ अपने पतियों की सेवा कर रही थीं। वे भी भाग गयीं। अब इसका उल्टा अर्थ जो ले लेगा वह धूल में जायेगा। यहाँ लौकिक अर्थ नहीं है। यह परम उच्च साधना की बात है। जहाँ जगत नहीं रहता है। इसलिये इसमें आगे बात आयी है। रासपञ्चाध्यायी पढ़े तो समझ में आयेगा कि भगवान ने पतियों की बात याद दिलायी जो साधारण स्त्रियों के लिये होती है।
कुछ गोपियाँ खाना खा रही थीं। इतना स्वार्थ होता है कि आदमी सोचता कि खा लें तो चलें।
अश्नन्त्यं भोजनं अपास्य - कई भोजन कर रही थीं। थाली पड़ी रही वहीं पर और बोले महाराज! और क्या-क्या हुआ?
‘अन्याः लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्यः- कुछ अंगराग लगा रही थीं और कुछ उबटन लगाकर नहा रही थीं और कुछ उबटन लगा चुकी थीं और नहाना था उनका उबटन लगा ही रह गया और छोड़कर चल दीं। कुछ नेत्रों में अन्जन लगा रही थीं।
काश्च लोचने अञ्जन्त्यः - एक आँख में काजल लगा लीं और दूसरे में वैसे ही रह गया। छूट गया और
‘काश्चित् व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः कृष्णान्तिकं ययुः’[1] पहन रही थीं चोली और सोचा कि ओढ़नी है तो उसको सिर पर डाल लिया। उलटे कपड़े पहन लिये और हाथ का गहना पैर में पहन लिया। कान का गहना अंगुली में डाल लिया। पता ही नहीं रहा कि यह गहना क्या है? बस! उलटे-सीधे कपड़े पहन लिये। विचित्र श्रृंगार हो गया। जहाँ तक अपना श्रृंगार दीखता है, श्रृंगार करें वहाँ तक श्रृंगार का दासत्त्व है, श्रृंगार की गुलामी है और वहाँ जब भगवान का आह्वान होता है तो यहाँ के श्रृंगार का फिर वहाँ पर कोई मूल्य नहीं रहता है। यह सारा श्रृंगार बिगड़कर वहाँ का श्रृंगार बनता है।
इनके लिये एक शब्द और आया है? वह शब्द है, वैसा ही है-
‘गोविन्दापहृतात्मानाः।’ गोविन्द ने इनके अन्तःकरण का हरण कर लिया था। यह कभी सौभाग्य हो कि हमारे मन को भी भगवान हरण कर ले, चुरा लें। वे क्यों चुरा लें? यहाँ बस यही एक समझने की बात है। हम यह कामना करें, इच्छा करें कि हमारा मन गोविन्द ले जाये। जब तुम गोविन्द के लिये मन को ख़ाली कर रखोगे। उसमें भरा हुआ बोझा कौन उठा कर ले जाय? हम तो मन को हरण करके ले जायेंगे। चोरी करके ले जायेंगे। पर तुम अपने मन को जगत से तो ख़ाली करो। उसमें कूड़ा करकट भर रखे हो तो उसे निकाल दो। तब गोविन्द हर कर ले जायेंगे। गोपियों ने सब कुछ अपने मन से निकाल दिया। इसलिये उनके मन को गोविन्द हर कर ले गये। ‘गोविन्दापहृतात्मानाः’ ‘कृष्णगृहीतमानसाः’, ‘समुत्सुकाः’ ये इनके नाम हैं।