रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 6

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन

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शरद पूर्णिमा पर दिया गया एक प्रवचन


असली कान्त के पास जा पहुँचीं। ये एक-एक अलग-अलग गयीं। प्रश्न हुआ कि ये घर के काम सहेज करके गयी होंगी कि वैसे ही गयीं। आप कहते हैं कि ऐसे ही भाग गयीं तो कैसे ऐसे भाग गयीं। कहा कि ये कृष्णगृहीतमानसा थीं। मुरली की ध्वनि सुनते ही भागीं। भागी क्यों?

समुत्सुकाः- वे श्रीकृष्ण से मिलने के लिये उत्सुक थीं। यही साधक का रूप होता है। यह जो उनके विशेषण हैं- ‘कृष्णगृहीतमानसाः, समुत्सुकाः’- यह बताते हैं उनकी स्थिति को। समुत्सुकाः- ये उतनी उत्सुक थीं भगवान से मिलने के लिये कि जहाँ मिलने की बात किसी भी रूप में आयी कि उनको और कुछ सूझा ही नहीं। क्या किया? अब स्थिति बताते हैं- ‘काश्चित् दुहन्त्यः दोहं हित्वा’।[1]

कुछ गोपियाँ गाय दुह रही थी। थन हाथ में, दूध दुह रही हैं, नीचे बर्तन रखा है और मुरली की ध्वनि कान में आयी तो ‘कृष्णगृहीतमानसाः, समुत्सुकाः’ जो थीं वह सब दुहना छोड़कर के भागीं। कहाँ भागी? जिधर से वह वेणुनाद आया था। उस वेणुनाद की ओर लक्ष्य करके वे भागीं। यह थी दुहने वालों की दशा और कुछ गोपियाँ दूध दुह लायी थीं तो उन्होंने दूध को चूल्हे पर रख दिया था औटाने के लिये और जहाँ यह आवाह्न आया तो अब औटाये कौन? जैसे वह दुहना छोड़कर भागीं वैसे ही ये भी भागीं चाहे दूध चूल्हे पर उफनकर गिर जाय।

यह जब तक जगत की स्मृति रहती है तब तक हम भगवान का आह्वान नहीं सुनते। ज्योंही भगवान का आह्वान सुना तो सुनते ही जगत की स्मृति को भूल गया। साधना का यह ऊँचा स्तर है। जगत को याद रखते हुए हम जो भगवान की ओर जाते हैं तो हम भगवान की ओर नहीं जाते बल्कि हम जगत में रमते हैं भगवान का नाम लेकर। उसी जगत में रमते हैं क्योंकि उसी को स्मृति में रखते हैं। जहाँ भगवान का आह्वान सुनायी दिया तो जगत भूल गया। दूध दुहती हुई गोपियाँ दुहना भूल गयीं और दूध भूल गयीं चूल्हे पर। कुछ गोपियाँ और काम कर रही थीं। कुछ हलवा बना रही थीं अपने घर वालों के लिये, उसको उतारे बिना ही चल दीं। उतारने का होश रहता तब न उतारतीं। बिना उतारे ही भाग गयीं। यह साधक की स्थिति होती है।

जब भगवान का आह्वान साधक सुनता है तो वह जगत की ओर नहीं देखता। बुद्ध ने नहीं देखा; जो प्रेम के साधक रहे। जरा-सा एक बार पुत्र की ओर देखा फिर मुँह मोड़ लिये, भाग गये। इस प्रकार से हलवे को चूल्हे से उतारे बिना ही भाग गयीं। बोले - यह तो अपना काम था, कोई दूसरे का काम कर रहीं हो तो?

‘परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा’ - जो घरवालों को भोजन परोस रही थीं वे ऐसा कैसे कर सकती थीं? सभ्यता होती कि परोसने का काम पूरा करके जा सकती थीं पर पूरा करे कौन? सब ‘कृष्णगृहीतमानसाः’ और ‘समुत्सुका’ थी। वह तो दूसरा काम पूरा करने के लिये चलीं। खैर, यह कोई बात नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10।29।5

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