रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 9

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन

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शरद पूर्णिमा पर दिया गया एक प्रवचन


किसी को रोका तो वह पहले पहुँच गयी। प्राणों को देकर पहुँच गयी। मतलब यह है कि यह आज की जो शरदपूर्णिमा की रात्रि है यह ऊँची बातों को छोड़ दें बस, इतनी बात कि यह साधना के लिये बड़े ऊँचे आदर्श को बतलाने वाली रात्रि है। इन दिन साधना की परिपूर्णता का जो परमफल होता है यह प्राप्त किया श्रीगोपांगनाओं ने।

बड़ी विलक्षण बात इसमें यह है जो पहले कही थी कि गोपियों ने अपने हृदय में उस विशुद्ध प्रेमामृत को भर रखा था कि उस प्रेमामृत की आकांक्षा भगवान को हो गयी। उन निष्काम में, परम अकाम में, पूर्णकाम में उस पवित्र मधुर प्रेम-रसास्वादन की इच्छा उत्पन्न हो गयी। भगवान को सुख देने गयीं, सुख लेने नहीं। यही साद है। जहाँ तक हम भगवान के द्वारा सुख चाहते हैं वहाँ तक हम भगवान के भक्त नहीं है। एक प्रेमी ही ऐसा है और कोई ऐसा नहीं है- बड़े-बड़े भक्त भी भगवान से सुख चाहते हैं कि भाई! हम समीप ही रहें आपके। आपके लोक को प्राप्त कर लें।

सालोक्य, सारुप्य, सामीप्य, साष्टि- यह बस प्राप्त कर लें। दर्शन दे दें हमको। ये बाबा कहते हैं कि यदि दर्शन देने से तुमको सुख न होता हो तो दर्शन मत दो। भोग की तो बात ही नहीं। तुम्हारे दर्शन भी यदि तुम्हें सुखकर न हो तो हमें नहीं चाहिये। हमें चाहिये केवल तुम्हारा सुख। इस प्रकार भगवान को सुख देने वाले केवल भगवान को देने के लिये ही पैदा होते हैं। केवल प्रेमी देने वाले होते हैं बाकी सभी लेने वाले होते हैं। जिज्ञासु साधक जो हैं मुमुक्षु वह मोक्ष चाहता है। महाराज! हमको मोक्ष दे दो। छुटकारा मिल जाये बन्धन से। सकामी की तो बात ही क्या? और भोग चाहने वाले तो नरक के कीड़े। उनकी तो बात ही नहीं है।

जो गोपियाँ वहाँ पर गयीं वे भगवान को देने के लिये गयीं। अब भगवान को देकर उनको सुख मिलेगा। जब भगवान को दिया, भगवान को सुखी देखा तो अपने को परम सुख और उनको सुखी देखा तो भगवान को परम सुख। एक दूसरे को सुखी बनाकर सुखी होना - इसी का नाम ‘रास’ है। यह रास नित्य चलता है।

यह रास पूर्णिमा जो आज की है यह त्याग की पराकाष्ठा का रूप बताने वाली है, साधक का रूप बताने वाली है और सब तो बाधक हैं। जो भोगों में रहे वह बाधक और जो भोगों से हटे वह साधक। जो भोगों में रहता है वह अपने आपको बाधा देता है। सारे भोगों से हटकर, सारे भोगों का परित्याग करके भगवान के पवित्र आह्वान पर गोपियाँ अपने आपको ले गयीं वहाँ भगवान के श्रीचरणाविन्द में और वहाँ ले जाकर भगवान को सुखदान दिया। यह रास का स्वरूप हैं। ऐसे तो रास की बड़ी-बड़ी, ऐसी-ऐसी बातें हैं जो बातें कभी चुकती ही नहीं इसमें बहुत-बहुत ऊँचे दूसरे भाव हैं। जिन भावों के लिये न तो समय है, न अवकाश है और न पूरे जानते ही हैं।

इसलिये इतनी बात अपनी जानकारी के लिये, अपने लिये होनी चाहिये। वह यह है कि भगवान के लिये त्याग करें। विषय-भोग का त्याग करें। संसार की आसक्ति, ममता का त्याग करें। सारी आसक्ति, सारी ममता भगवान में जाकर के हमारी लग जाये। इतना हम गोपी भाव से ले लें, इतना ही हम रास से ले लें तो हमारा जीवन पवित्र हो जाय। फिर रासमण्डल में तो भगवान ले जायेंगे। वह तो कहीं उनकी इच्छा होगी या श्रीराधारानी की कहीं कृपा होगी वह किसी सखी-मञ्जरी से कह देंगी अपने लिये तो वह ले जायेगी। हम अपने पुरुषार्थ से नहीं जा सकते।

हमारा पुरुषार्थ जहाँ समाप्त होता है, वहाँ प्रेम का पाठ आरम्भ होता है। जहाँ चारों पुरुषार्थों की सीमा इधर रह जाती है वहाँ प्रेम की सीमा का प्रारम्भ होता है। यह गोपी प्रेम है और रास तो उसका एक प्रत्यक्ष पूर्ण-स्वरूप है। पूर्णतः प्रेम तो किसी को कह ही नहीं सकते। कहीं पूर्ण है ही नहीं। यहाँ तो सारा-का-सारा अपूर्ण रहता है। जितना मिला उतना ही थोड़ा। इस प्रेमराज्य में प्रवेश करने वालों के लिये यह गोपियों का उदाहरण है। श्रीकृष्णमानसा होकर वे श्रीकृष्ण के चरणों में अपने को समर्पित कर देते हैं कृष्ण को सुखी बनाने के लिये। यह गोपी भाव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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