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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भक्त के मानस भावों के भेद के अनुसार भक्ति के पाँच प्रकार होते हैं - शान्तरति, दास्यरति, सख्यरति, वात्सल्यरति और मधुररति। इन्हीं का नाम पाँच रस भी है - शान्त रस, दास्य रस, सख्य रस, वात्सल्य रस और मधुर रस। कृष्ण भक्ति में इन पाँच रसों की प्रधानता है। रस तो अनेक हैं। रस शास्त्र में एक जगह 28 रस माने हैं, एक जगह 16 रस माने हैं, एक जगह 11 माने, एक जगह 9 माने, एक जगह 6 माने, एक जगह 5 भेद माने हैं। यह रसों के भेद हैं। यह रस शास्त्र का अलग विषय है। यहाँ इसकी आवश्यकता नहीं। यह पाँच प्रकार की रतियों को संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है। स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, मान, कीर्ति-यश, शरीर में इनमें से ममता रहित न होने पर इनमें से कोई भक्ति नहीं मिलती। इनकी ममता को तो छोड़ना पाँचों प्रकार की भक्तियों में आवश्यक है। जब यह सांसारिक तमाम वस्तुओं से ममता शून्य होकर पूर्ण कृष्ण-निष्ठा में होकर अपने इस नाम-रूप को खो देता है आदमी-‘आत्महरा होई तो जाने’ आत्महरा अर्थात अपने को खो देने वाला। अपने को खो देने वाला जब बन जाता है तभी लौकिक ममता रहित कृष्ण-निष्ठा होती है। उसका नाम शान्तरति है। इन्द्रियों का दमन, मन का दमन, दुराचार-सदाचार सर्वथा परित्याग, वैराग्य का उदय और भगवान में निष्ठा यह हो जाते हैं तो इसका नाम शान्ति रति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च. 2।19।157-159
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