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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
जिन आचरणों के द्वारा भक्ति की प्राप्ति हो वह साधन-भक्ति, जिन भक्ति साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति में निष्ठा हो जाय उसका नाम सिद्ध भक्ति और जो भक्ति केवल प्रेम मूलक हो रागात्मिका या रागानुगा हो उसका नाम शुद्ध भक्ति। इसलिये साधन भक्ति से जब रति का उदय होता है, तब तो सिद्ध भक्ति होती है और रति जब प्रगाढ़ होती है उसका नाम प्रेम होता है और वही शुद्ध भक्ति है।
साधन भक्ति के द्वारा रति की उत्पत्ति होती है और रति के प्रगाढ़ होने पर उसका नाम प्रेम होता है। तो दूसरी वांछा, दूसरी पूजा, ज्ञान, कर्म इत्यादि का परित्याग करके केवल भगवान की प्रीति के लिये कीर्तनादि भक्त्यांग साधनों के द्वारा स्त्री-पुत्र-परिजन, धन, यश, कीर्ति, लोक-परलोक, विषय-वैभव इत्यादि में रहने वाली ममता को सर्वथा छोड़कर भगवान में पूर्ण ममता प्राप्त करने की इच्छा और चेष्टा हो। इस प्रकार करते-करते जब अन्य निरपेक्ष कृष्ण निष्ठ ममता हो जाय अर्थात अन्य कहीं पर तो ममता रहे नहीं और सारी ममता श्रीकृष्ण में ही जाकर केन्द्रित हो जाय; इसका नाम प्रेम, इसका नाम शुद्धा भक्ति। लेकिन शुद्धा भक्ति के भी भेद होते हैं। शुद्धा भक्ति में भी ममता के तारतम्य को लेकर, ममता के विशेषत्व को लेकर, यह एक ही प्रेम विभिन्न भक्तों के हृदयों में विभिन्न मूर्ति धारण करके विभिन्न नाम और भावों से युक्त होकर विहरित होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चै. च. 2।19।151
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