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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
इन दोनों श्रुति वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि जो ब्रह्मरूप सर्वात्मक सच्चिदानन्दरूप परतत्त्व का आस्वादन करते हैं वे सर्वात्मक परब्रह्म वस्तु में आत्मस्वरूप के द्वैत को डुबोकर सर्वात्मक वस्तु के स्वरूपान्तर्गत अपने को खो देते हैं। उनका अपना अलग अस्तित्व नहीं रह जाता। लेकिन जो सर्वात्मक वस्तु को रस-रूप से, प्रियतम रूप से, आस्वाद्य रूप से मेरा है इस ममत्व के भाव से ग्रहण कर सकते हैं वे सर्वात्मक सर्वप्रिय और सर्वविध ममतास्पद वस्तु के मूलस्वरूप सच्चिदानन्द का आस्वाद पाकर परमानन्द में अपने आपको मिलाये रहते हैं। ये आस्वाद्य पाते हैं और वो डूब जाते हैं। यह भेद है। इसलिये यह देखा जाता है कि ब्रह्मभूत और शान्त भक्त में यह अन्तर है कि वो ब्रह्मानन्द के स्वरूप हैं और ये ब्रह्मानन्द के भोक्ता हैं। वहाँ ब्रह्म मिल गया और यहाँ ब्रह्म इनका भोग हो गया। शान्त भक्तगणों में बस! केवल कृष्ण-निष्ठाजनित आनन्द का ही भोग होता है और कोई संसार के भोग की बात नहीं रहती है। लेकिन कृष्ण-निष्ठाजनित आनन्द का भोग होता है। कृष्ण सेवानन्द का आस्वादन यहाँ भी नहीं होता। अब शान्त रसों की बात-शान्त रस में थोड़ी देर के लिये सर्वात्मक स्वरूप में डूब जाने की बात छोड़ दीजिये। शान्त रस में कृष्ण-निष्ठाजनित आनन्द का भोग होता है। सेवानन्द का नहीं होता। सेवानन्द में कुछ इस प्रकार की स्थिति होनी चाहिये कि जहाँ सेवक को सेव्य अपना सेवक मान ले। शान्त रस में निष्ठा श्रीकृष्ण में है। पर श्रीकृष्ण ने उनको सेवक नियुक्त नहीं किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तैत्ति. उप. 2।7।2
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