रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 52

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

Prev.png
स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


तब भगवान ने इस विशाल ब्रह्माण्ड और उसमें छोटे-बड़े असंख्य जीव और उनके अच्छे-बुरे भोग्य पदार्थ इनकी सृष्टि की। गुरुतर कार्य भगवान का है। तो जगत की सृष्टि की प्रवृत्ति में क्या भगवान का कोई प्रयोजन नहीं। यदि कोई प्रयोजन नहीं तो सृष्टि की रचना की क्यों? और प्रयोजन यदि माना जाय तो भगवान नित्य-चैतन्य, नित्य-निरंजन हैं यह वाक्य ठीक नहीं बैठता। और कोई अगर यह सोचना है कि यह उन्मत्त का काम है; पागल ने ऐसा काम कर दिया किसी प्रयोजन के न होने पर भी उन्मत्त की भाँति-यह बात भी नहीं ठीक है। क्यों? ‘यः सर्वज्ञः सर्वविद’[1] भगवान उन्मत्त हैं नहीं, सर्वज्ञ हैं, उनको कोई प्रयोजन है नहीं। तो क्या बात है? शंकराचार्य जी की समालोचना से मालूम होता है कि भगवान के कार्य में कोई न कोई प्रयोजन तो है परन्तु वह प्रयोजन है क्या, यह जानना है बड़ा कठिन; क्योंकि आप्तकाम में प्रयोजन हो नहीं सकता और प्रयोजन के बिना प्रवृत्ति होती नहीं। यह शास्त्रार्थ की चीज है। प्रयोजन तो आप्तकाम में सम्भव नहीं और प्रयोजन के बिना प्रवृत्ति सम्भव नहीं। तो क्या बात है?

वेदान्त दर्शन के द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’[2] इस सूत्र की व्याख्या में भगवान शंकराचार्य ने रामानुजाचार्य ने, मध्वाचार्य ने सभी ने अपना-अपना मत प्रकट किया। उसमें शंकराचार्य का यह मत है ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ में कि जो कोई राजा या उच्च पदस्थ राज्याधिकारी कोई प्रयोजन न होने पर भी क्रीडा-विहारादि करते हैं, खेल करते हैं बाह्य प्रयोजन न दीखने पर भी और स्वभावतः ही सबके श्वास पर श्वास आता है। इसी प्रकार भगवान में भी प्रयोजन न होने पर भी स्वभावतः ही लीला से जगत की सृष्टि वे किया करते हैं। तो उसमें यदि कोई यह समझे कि उनके मन में क्रीडादि का प्रयोजन तो है ही। सुखापेक्षा है। तो कहते हैं कि भगवान अनन्त लीलामय हैं। उनमें कोई आत्म सुख या सुखापेक्षा हो नहीं सकती। वे आप्तकाम हैं तो प्रयोजन न होने पर भी वे उन्मत्त नहीं हैं, खेल करते हैं। ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ और ‘स इमाँल्लोकान् सृजत’[3] यह सर्वज्ञ, सर्वविद है।

इससे यह जाना जाता है कि वे सर्वज्ञ होते हुए भी प्राकृत-अप्राकृत सब वस्तुओं के ज्ञाता होते हुए भी उनका कार्य उन्मत्त का कार्य नहीं है। यह लीला है। इसी प्रकार इन्होंने लीला बताया। किसी ने इसको मत्त का नृत्य बताया। किसी ने उन्मत्तता बताया। किसी ने और कोई चीज बतायी। महाराजाओं की क्रीडा बतायी। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अपनी-अपनी विचार धारा को प्रकट किया। तो बोले भई! यह क्या बात है? जब तब कहा-भगवान के लिये कोई उदाहरण मिलता ही नहीं। और जितने भी उदाहरण होते हैं, दृष्टान्त होते हैं - ये एकमुखी या एकपक्षीय होते हैं। चाँद के समान मुँह है का अर्थ यह नहीं कि चन्द्रमा ही उसके मुँह पर आ गया है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मुण्डकोपनिषद 2।2।7
  2. 2।1।33
  3. ऐतरेयापनिषद 1।1।2

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः