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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
वेदान्त दर्शन के द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’[2] इस सूत्र की व्याख्या में भगवान शंकराचार्य ने रामानुजाचार्य ने, मध्वाचार्य ने सभी ने अपना-अपना मत प्रकट किया। उसमें शंकराचार्य का यह मत है ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ में कि जो कोई राजा या उच्च पदस्थ राज्याधिकारी कोई प्रयोजन न होने पर भी क्रीडा-विहारादि करते हैं, खेल करते हैं बाह्य प्रयोजन न दीखने पर भी और स्वभावतः ही सबके श्वास पर श्वास आता है। इसी प्रकार भगवान में भी प्रयोजन न होने पर भी स्वभावतः ही लीला से जगत की सृष्टि वे किया करते हैं। तो उसमें यदि कोई यह समझे कि उनके मन में क्रीडादि का प्रयोजन तो है ही। सुखापेक्षा है। तो कहते हैं कि भगवान अनन्त लीलामय हैं। उनमें कोई आत्म सुख या सुखापेक्षा हो नहीं सकती। वे आप्तकाम हैं तो प्रयोजन न होने पर भी वे उन्मत्त नहीं हैं, खेल करते हैं। ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ और ‘स इमाँल्लोकान् सृजत’[3] यह सर्वज्ञ, सर्वविद है। इससे यह जाना जाता है कि वे सर्वज्ञ होते हुए भी प्राकृत-अप्राकृत सब वस्तुओं के ज्ञाता होते हुए भी उनका कार्य उन्मत्त का कार्य नहीं है। यह लीला है। इसी प्रकार इन्होंने लीला बताया। किसी ने इसको मत्त का नृत्य बताया। किसी ने उन्मत्तता बताया। किसी ने और कोई चीज बतायी। महाराजाओं की क्रीडा बतायी। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अपनी-अपनी विचार धारा को प्रकट किया। तो बोले भई! यह क्या बात है? जब तब कहा-भगवान के लिये कोई उदाहरण मिलता ही नहीं। और जितने भी उदाहरण होते हैं, दृष्टान्त होते हैं - ये एकमुखी या एकपक्षीय होते हैं। चाँद के समान मुँह है का अर्थ यह नहीं कि चन्द्रमा ही उसके मुँह पर आ गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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