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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
यहाँ फिर शंका उठी कि भई! परब्रह्म जो है निर्विशेष हैं। परमानन्द स्वरूप हैं - इनमें प्रयोजन बुद्धि क्यों आयी। आनन्द-वितरण करने की बात भी एक प्रयोजन है। शास्त्र सम्मत है यह। बात ठीक है - निर्विशेष निष्प्रयोजन प्रवृत्तिहीन परब्रह्म में भी। शास्त्र श्रुतियाँ कहती हैं कि उनमें भी प्रवृत्ति होती है। कैसे? तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’[1] आदि श्रुति वाक्यों से यह जाना जाता है कि सृष्टि के पूर्व त्रिगुणमयी प्रवृत्ति को उन्होंने वीक्ष्ण किया और अपने को बहुत से रूपों में प्रकाशित किया। यह प्रवृत्ति हुई न। ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’[2] श्रुतिवाक्यों से जाना जाता है कि यह सर्वकार्यकारण ब्रह्म ही परिदृश्यमान सारे संसार की सृष्टि करते हैं और अन्तर्यामी रूप में उसमें प्रवेश करते हैं। तो अवश्य ही इनकी प्रवृत्ति है और प्रवृत्ति है तो कोई प्रयोजन है। यह दूसरी बात है कि इनका प्रयोजन तुच्छ नहीं है। उनका प्रयोजन सहेतुक नहीं है पर प्रयोजन अवश्य है। यह प्रयोजन क्या है? यहाँ एक सूत्र है वेदान्त दर्शन का ‘न प्रयोजनवत्त्वात्’[3] शास्त्रार्थ है। यह थोड़ा कठिन विषय है। इसका अर्थ भाष्यकार करते हैं। इस सूत्र के भाष्य में शंकराचार्य लिखते हैं - जगत में देखा जाता है कि चेतन और बुद्धिपूर्वक काम करने वाला कोई भी आदमी सामान्य कार्य में भी यदि रत होता है तो उसकी अपने प्रयोजन के अनुरूप प्रवृत्ति होती है और बड़े काम में हस्तक्षेप जब करना होता है तब विशेष रूप से आत्म-प्रवर्तन-उसके अनुसार प्रवृत्ति होती है। यह कहना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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