रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 51

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


अतएव परब्रह्म का स्वरूपानन्द ग्रहण ही जीवों का आनन्दास्वादन है। इस तरह से रासलीला स्वरूपानन्द वितरण है। परब्रह्म का आनन्द-स्वादन है। माने आत्माराम मुनियों का जो आनन्दास्वादन है वह तो है इसलिये कि उनको उस आनन्द की इच्छा है। लेकिन भगवान जो हैं ये तो नित्य आनन्दमय हैं। भगवान में आनन्द की इच्छा नहीं घट सकती। जो सारे आनन्द के मूल केन्द्र हैं, जिनके रसस्वरूप को ग्रहण करके ही सब आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं, जिनका आनन्द ही जीव-जगत को आनन्द दान देता है वो सर्वविध आनन्द के मूल केन्द्र हैं। जगत के जीव जिनको पाने के लिये व्यग्र हैं। वह समस्त आनन्दों के मूलकेन्द्र-स्वरूप भगवान किसी प्रयोजन से आनन्दभोग करने की इच्छा करे, यह नहीं हो सकता। आत्माराम मुनियों का जो आत्माराम रसास्वादन है-आनन्दास्वादन यह भी इनमें नहीं है। तो क्या है? स्वरूपानन्द को प्राप्त करके जैसे आत्माराम मुनिगण आनन्द का रसास्वादन करते हैं तो यह स्वरूपानन्द का प्राप्त करना क्या है? इनका स्वरूपानन्द वितरण है। भगवान जो स्वरूपानन्द का वितरण करते हैं यही यहाँ पर भगवान का रमण है।

यहाँ फिर शंका उठी कि भई! परब्रह्म जो है निर्विशेष हैं। परमानन्द स्वरूप हैं - इनमें प्रयोजन बुद्धि क्यों आयी। आनन्द-वितरण करने की बात भी एक प्रयोजन है। शास्त्र सम्मत है यह। बात ठीक है - निर्विशेष निष्प्रयोजन प्रवृत्तिहीन परब्रह्म में भी। शास्त्र श्रुतियाँ कहती हैं कि उनमें भी प्रवृत्ति होती है। कैसे? तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’[1] आदि श्रुति वाक्यों से यह जाना जाता है कि सृष्टि के पूर्व त्रिगुणमयी प्रवृत्ति को उन्होंने वीक्ष्ण किया और अपने को बहुत से रूपों में प्रकाशित किया। यह प्रवृत्ति हुई न। ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’[2] श्रुतिवाक्यों से जाना जाता है कि यह सर्वकार्यकारण ब्रह्म ही परिदृश्यमान सारे संसार की सृष्टि करते हैं और अन्तर्यामी रूप में उसमें प्रवेश करते हैं। तो अवश्य ही इनकी प्रवृत्ति है और प्रवृत्ति है तो कोई प्रयोजन है। यह दूसरी बात है कि इनका प्रयोजन तुच्छ नहीं है। उनका प्रयोजन सहेतुक नहीं है पर प्रयोजन अवश्य है। यह प्रयोजन क्या है?

यहाँ एक सूत्र है वेदान्त दर्शन का ‘न प्रयोजनवत्त्वात्’[3] शास्त्रार्थ है। यह थोड़ा कठिन विषय है। इसका अर्थ भाष्यकार करते हैं। इस सूत्र के भाष्य में शंकराचार्य लिखते हैं - जगत में देखा जाता है कि चेतन और बुद्धिपूर्वक काम करने वाला कोई भी आदमी सामान्य कार्य में भी यदि रत होता है तो उसकी अपने प्रयोजन के अनुरूप प्रवृत्ति होती है और बड़े काम में हस्तक्षेप जब करना होता है तब विशेष रूप से आत्म-प्रवर्तन-उसके अनुसार प्रवृत्ति होती है। यह कहना पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छान्दोग्य 6।2।3
  2. तैत्ति.उप. 2।6।4
  3. 2।1।32

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