रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 155

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

Prev.png

गोपियों के शरीर-मन-प्राण, वे जो कुछ थीं- सब श्रीकृष्ण में एकतान हो गये। उनके प्रेमोन्माद का वह गीत, जो उनके प्राणों का प्रत्यक्ष प्रतीक है, आज भी भावुक भक्तों को भावमग्न करके भगवान के लीलालोक में पहुँचा देता है। एक बार सरस हृदय से, हृदयहीन होकर नहीं, पाठ करने मात्र से ही वह गोपियों की महत्ता सम्पूर्ण हृदय में भर देता है। गोपियों के उस ‘महाभाव’-उस ‘अलौकिक प्रेमोन्माद’ को देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तर्हित न रह सके, उनके सामने ‘साक्षात मन्मथमन्मथ’ रूप से प्रकट हुए और उन्होंने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया कि ‘गोपियों! मैं तुम्हारे प्रेमभाव का नित्य ऋणी हूँ। यदि मैं अनन्त काल तक तुम्हारी सेवा करता रहूँ तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। मेरे अन्तर्धान होने का प्रयोजन तुम्हारे चित्त को दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेम को और उज्ज्वल एवं समृद्ध करना था।’ इसके बाद रासक्रीड़ा प्रारम्भ हुई।

जिन्होंने अध्यात्म शास्त्र का स्वाध्याय किया है, वे जानते हैं कि योगसिद्धि प्राप्त साधारण योगी भी कायव्यूह के द्वारा एक साथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों पर उपस्थित रहकर पृथक-पृथक कार्य कर सकते हैं। इन्द्रादि देवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में एक साथ आहुति स्वीकार कर सकते हैं। निखिल योगियों और योगेश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीडा करें तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी-बात है? जो लोग भगवान को भगवान नहीं स्वीकार करते, वे ही अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाएँ करते हैं। भगवान की निजलीला में इन तर्कों के लिये कोई स्थान नहीं है।

गोपियों श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया, यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरूप को भुलाकर ही उठाया जाता है। श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत की वस्तुओं में उनका हिस्सेदार दूसरा जीव भी हो। जो कुछ भी था, है और आगे होगा-उसके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं। अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी, गोपियों के पति, उनके पुत्र, सगे-सम्बन्धी और जगत के समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मारूप से, परमात्मारूप से जो प्रभु स्थित हैं - वही श्रीकृष्ण हैं। कोई भ्रम से, अज्ञान से भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे; वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं, सब उनके हैं। श्रीकृष्ण की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं; सब स्वकीया हैं, सब केवल अपना ही लीलाविलास है, सभी स्वरूपभूता आत्मस्वरूपा अन्तरंगा शक्ति हैं। गोपियाँ इस बात को जानती थीं और स्थान-स्थान पर उन्होंने ऐसा कहा है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः