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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-रहस्य
ऐसी स्थिति में ‘जारभाव’ और ‘औपपत्य’ का कोई लौकिक अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ काम नहीं है, अंग-संग नहीं है, वहाँ ‘औपपत्य’ और ‘जारभाव’ की कल्पना ही कैसे हो सकती है? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं, परन्तु उनमें परकीयाभाव था। परकीया होने में और परकीयाभाव होने में आकाश-पाताल का अन्तर है। परकीया भाव में तीन बातें बड़े महत्त्व की होती हैं-
स्वकीयाभाव में निरन्तर एक साथ रहने के कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं, परन्तु परकीयाभाव में ये तीनों भाव उत्तरोत्तर बढ़ते रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभाव से श्रीकृष्ण को चाहती थीं। इसका इतना ही अर्थ है कि वे श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलन के लिये उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्ण के प्रत्येक व्यवहार को प्रेम की आँखों से ही देखती थीं। चौथा भाव विशेष महत्त्व का और है - वह यह कि स्वकीया अपने घर का, अपना और अपने पुत्र-कन्याओं का पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पति से चाहती है। वह समझती है कि इनकी देख-रेख करना पति का कर्तव्य है; क्योंकि ये सब उसी के आश्रित हैं और वह पति से ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायणा क्यों न हो, स्वकीया में यह सकाम भाव छिपा रहता ही है। परंतु परकीया अपने प्रियतम से कुछ नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती; वह तो केवल अपने को देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियों में यह भाव भी भली-भाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषता के कारण संस्कृत-साहित्य के कई ग्रन्थों में निरन्तर चिन्तन के उदाहरण स्वरूप परकीयाभाव का वर्णन आता है। गोपियों के इस भाव के एक नहीं, अनेकों दृष्टान्त श्रीमद्भागवत में मिलते हैं; इसलिये गोपियों पर परकीयापन का आरोप उनके भाव को न समझने के कारण है। जिसके जीवन में साधारण धर्म की एक हल्की-सी प्रकाश-रेखा आ जाती है, उसी का जीवन परम पवित्र और दूसरों के लिये आदर्शस्वरूप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका है, अथवा जो नित्यसिद्धा एवं भगवान की स्वरूपभूता हैं, या जिन्होंने कल्पों तक साधना करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचार का उल्लंघन कैसे कर सकती हैं? और समस्त धर्म-मर्यादाओं के संस्थापक श्रीकृष्ण पर धर्मोल्लंघन का लांछन कैसे लगाया जा सकता है? श्रीकृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध में इस प्रकार की कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरूप और दिव्य लीला के विषय में अनभिज्ञता ही प्रकट करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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