रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 154

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

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श्रीकृष्ण की यह शिक्षा गोपियों के लिये नहीं, सामान्य नारी जाति के लिये है। गोपियों का अधिकार विशेष था और उसको प्रकट करने के लिये ही भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे वचन कहे थे। इन्हें सुनकर गोपियों की क्या दशा हुई और इसके उत्तर में उन्होंने श्रीकृष्ण से क्या प्रार्थना की; वे श्रीकृष्ण को मनुष्य नहीं मानतीं, उनके पूर्णब्रह्म सनातन स्वरूप को भलीभाँति जानती हैं और यह जानकर ही उनसे प्रेम करती हैं-इस बात का कितना सुन्दर परिचय दिया; यह सब विषय मूल में पाठ करने योग्य है। सचमुच जिनके हृदय में भगवान के परमतत्त्व का वैसा अनुपम ज्ञान और भगवान के प्रति वैसा महान अनन्य अनुराग है और सच्चाई के साथ जिनकी वाणी में वैसे उद्गार हैं, वे ही विशेष अधिकारवान हैं।

गोपियों की प्रार्थना से यह बात स्पष्ट है कि वे श्रीकृष्ण को अन्तर्यामी, योगेश्वरेश्वर परमात्मा के रूप में पहचानती थीं और जैसे दूसरे लोग गुरु, सखा या माता-पिता के रूप में श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं, वैसे ही वे पति के रूप में श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं, जो शास्त्रों में मधुर भाव के-उज्ज्वल परम रस के नाम से कहा गया है। जब प्रेम के सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधकों को स्वामि-सखादि के रूप में भगवान मिलते हैं, तब गोपियों ने क्या अपराध किया था कि उनका यह उच्चतम भाव-जिसमें शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य सब-के-सब अन्तर्भूत हैं और जो सबसे उन्नत एवं सब का अन्तिम रूप है-क्यों न पूर्ण हो? भगवान ने उनका भाव पूर्ण किया और अपने को असंख्य रूपों में प्रकट करके गोपियों के साथ क्रीडा की। उनकी क्रीडा का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है-‘रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिविम्बविभ्रमः।’ जैसे नन्हा-सा शिशु दर्पण अथवा जल में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब के साथ खेलता है, वैसे ही रमेश भगवान और व्रजसुन्दरियों ने रमण किया। अर्थात सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामी प्रेमरसस्वरूप, लीलारसमय परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी ह्लादिनी शक्तिरूपा आनन्द-चिन्मयरस-प्रतिभाविता अपनी ही प्रतिमूर्ति से उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्बस्वरूपा गोपियों से आत्मक्रीडाअ की। पूर्णब्रह्म सनातन रसस्वरूप रसराज रसिक-शेखर रस-परब्रह्म अखिलरसामृतविग्रह भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीडा का नाम ही रास है। इसमें न कोई जड शरीर था, न प्राकृत अंग-संग था और न इसके सम्बन्ध की प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाम में सर्वदा होते रहने पर भी कभी-कभी प्रकट होता है।

वियोग ही संयोग का पोषक है, मान और मद ही भगवान की लीला में बाधक हैं। भगवान की दिव्य लीला में मान और मद भी, जो कि दिव्य हैं, इसीलिये होते हैं कि उनसे लीला में रस की और भी पुष्टि हो। भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीलानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अन्तर्धान हो गये। जिनके हृदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है, वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं। अथवा वे भगवान के पास रहने पर भी, उनका दर्शन नहीं कर सकते। परन्तु गोपियाँ गोपियाँ थी, उनसे जगत के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं है। भगवान के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, इस बात को रासलीला का प्रत्येक पाठक जानता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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