रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 130

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


इसलिये सुखानुभूति विरह के बाद के मिलन में जो होती है वह नित्य मिलन में नहीं होती। जैसे एक तो भूख लगने पर अन्न खाया जाय और एक रसोई पकने पर बैठ जाय कि भूख लगे न लगे अपने थाली पर बैठ गये कि कुछ खा ही लो तब आनन्द नहीं आता। बढ़िया-से-बढ़िया चीज परोसी हुई हो और भूख नहीं लगे तो खाने में आनन्द नहीं आता। चीज बढ़िया है पर कहीं भूख जोर से लगी हो और वहाँ अगर बढ़िया चीज मिल जाय तो फिर कहना ही क्या? भूख लगने पर आनन्द तो घटिया चीज में भी आ जाता है और फिर सबसे बढ़िया मिले तो सोने में सुहागा-सोना सुगन्ध दोनों है।

विरह के बाद मिलन में जिस माधुर्य का आस्वादन होता है वह चिरमिलन में या अगाध मिलन में कभी नहीं होता। निर्बाध मिलन और नित्य मिलन इन दोनों में वह नहीं होता। लक्ष्मियाँ भगवान की प्रेयसी अवश्य हैं परन्तु उनको विरह के स्वरूप का पता ही नहीं। विरह के स्वरूप की अनुभूति उनको जीवन में कभी हुई ही नहीं। विरह के बाद प्राप्त होने वाला जो मिलन सुख है इसको वे जानती हैं नहीं। यह सत्य तथ्य है तथा सिद्धान्तयुक्त है और भगवान का है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुये ही रासपञ्चाध्यायी को समझना है नहीं तो समझ में ठीक नहीं आता है।

‘भगवानपि ता रात्रीः’ - पहला शब्द ‘भगवान’ बड़ी बुद्धिमानी से शुकदेव जी ने रखा है। बस यह भगवान की लीला है। यह रमण भगवान का है। इसी में सारी बात आ जाती है। भगवान के रमण में भोगेच्छा होती नहीं और भगवान के रमण में आत्मारामता या आत्मरमण की इच्छा होती नहीं। वे स्वयं नित्य आत्माराम हैं, आत्मस्वरूप हैं और भोगेच्छा की वहाँ कहीं कल्पना नहीं। तो है क्या? भगवान का स्वयं रमण। स्वयं रमण क्या? यह बड़ा सुन्दर भाव है - स्वरूपानन्दवितरण। अपने स्वरूपभूत आनन्द का वितरण करना-यह उनका रसास्वादन है। यह उनका रमण है इसलिये इसकी रक्षा करते हुये ही चलते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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