रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 129

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


यहाँ पर समझाने का तात्त्विक विषय है। जिसमें मिलनोत्कण्ठा नहीं, जिसमें विरहास्वादन नहीं वह अधूरा प्रेमराज्य है। इसलिये यहाँ की जो मिलनासक्ति है और मिलनसुखानुभूति है वह अपूर्ण है। लक्ष्मी जी की मिलनानुभूति-मिलन सुखानुभूति-यह अपूर्ण है और महिषियाँ, पटरानियाँ विवाह विधि के अनुसार भगवान श्रीरामचन्द्रादि के लीला-विग्रह के साथ या भगवान श्रीद्वारिकाधीश के लीला विग्रह के साथ आजीवन पतिबुद्धि से उनकी सेवा करती हैं। यद्यपि प्रथम मिलन के समय तो इनमें मिलनोत्कण्ठा है। रूक्मिणीजी में, सत्यभामाजी में अतीव उत्कण्ठा है परन्तु पत्नी रूप में अंगीकृत होकर मिल जाने पर और सेवा प्राप्ति में कोई बाधा न रहने पर उत्कण्ठा नहीं रहती। नित्य की वस्तु प्राप्त हो गयी।

इसलिये जो विवाह विधि के अनुसार भगवान की पटरानियाँ हो गयीं वो विवाह के बाद निरूद्वेग-निर्बाध और निश्चिन्त भाव से पति बुद्धि से भगवान की सेवाधिकारिणी होती हैं। उनकी जो सेवा है वह उत्कण्ठा रहित है। इन सब में चार चीजों का अभाव है। चार चीज वे क्या हैं? एक तो है मिलन की उत्कंठा का अभाव, दूसरी है नित्य-स्मृति का अभाव, मिल ही गयी तो स्मरण कैसा? तीसरी चीज है दोष-दर्शन की सम्भावना-पत्नी अपने पति को कह सकती है कि आज अपने भूल की या यह काम ठीक नहीं किया, ऐसा नहीं करना चाहिये और चौथी चीज है सकाम भावना-अपने लिये न सही, घर के लिये सही। तो ये चार बातें हैं-सकाम भावना, दोष-दर्शन की सम्भावना, नित्य-स्मृति का अभाव और मिलनोत्कंठा का अभाव। इसलिये इनका जो प्रेम सुखानुभव है वह अपूर्ण है। लक्ष्मी का भी अपूर्ण और राजरानियों का भी अपूर्ण है। क्यों-

न विना विप्रलम्भेन संभोगपुष्टिमश्नुते’

यह रसशास्त्र का सिद्धान्त है। उज्ज्वल नीलमणि का यह वाक्य है। इस सिद्धान्त से संभोग रस की पुष्टि विरह के बिना, विप्रलम्भ के बिना सम्भव नहीं। जहाँ निरन्तर मिलन है वहाँ विरह की सम्भावना नहीं। वहाँ मिलन की सुखानुभूति भी विरह के पश्चात होने वाले मिलन के समान नहीं। स्वाभाविक बात है। बेटा को ही ले लीजिये, बेटा रोज पास रहे तो माँ जानती है कि बेटा पास ही है रोज-रोज घर में ही रहता है। उसके लिये कौन-सी उत्सुकता होती है पर परदेश चला गया। वर्ष-दो वर्ष-चार वर्ष बीत गये तब माँ भाव-विह्वल हो गयी। अब कहीं बेटा आता है तो सब कुछ भूल करके माँ उसके लालन-पालन में लग जाती है। यह सुख रोज रहने वाले बेटे के साथ नहीं होता। इसी प्रकार सभी रसों में वात्सल्य में भी, सख्य में भी, मधुर में भी यही पद्धति है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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