रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 12

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम[1] में दिये गये प्रवचन


भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तु मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।।[2]

‘भगवानपि’- भगवान ने भी, ऐसा कहा कि- ‘भगवानपि शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ता रात्रीः वीक्ष्य योगमायामुपाश्रितः रन्तुं मनश्चक्रे’। शुकदेव जी ने कहा कि भगवान ने भी जिन रात्रियों में शारदीय मल्लिका पुष्प खिले हुए थे; उन रात्रियों को देखकर योगमाया को प्रकट करके रमण करने का मन किया, संकल्प किया। इसमें सबसे पहला शब्द आया है भगवान

रास-पञ्चाध्यायी की बात सुनने के पहले यह समझ लेना चाहिये कि यह कोई कविता पाठ नहीं हो रहा है। यह भगवान की लीला है। भगवान की लीला समझकर पढ़ना, सुनना, कहना, यह रासपञ्चाध्यायी में सबसे पहले करना चाहिये। असल में इसके कोई लौकिक प्रसंग है भी नहीं। आगे आयेगा कि भगवान का एक नाम ‘मन्मथमन्मथ’ है। मन को मथ देता है जो कामदेव; उसके मन को यह मथने वाले हैं। तो काम में जो शक्ति पैदा होती है वह भगवान से होती है। जैसे लोहे का कोई पिण्ड हो और वह अग्नि में गरम कर दिया जाय तो वह सबको जला देगा परन्तु क्या अग्नि को जला सकता है। उसमें जो सबको जलाने की शक्ति है, वह तो अग्नि से ही आयी है। इसलिये अग्नि को नहीं जला सकता। इसी प्रकार काम में जो शक्ति है वह शक्ति आयी है भगवान से जो मन्मथमन्मथ हैं। भगवान में किसी प्रकार का कोई विकार आ जाय यह सम्भव नहीं।

दूसरी बात यह है कि इसके श्रोता हैं महाराज परीक्षित; जो स्वयं वैराग्यवान हैं, मुमुक्षु हैं, धर्म को जानने वाले हैं और मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठे हैं। मरण का समय है। उनकी सात दिन में मृत्यु हो जायेगी और चार दिन व्यतीत हो चुके हैं। मृत्यु आसन्न है। मृत्यु के समय कोई किसी को लौकिक बात सुनावें और वह सुने तो यह बनती नहीं। दूसरे बात सुनने वाले कोई ऐसे आदमी हों जो उलटी-सीधी बात भी सुन लें, ऐसे आदमी परीक्षित नहीं हैं।

इसमें भी और ऊँची बात यह है कि सुनाने वाले कौन? जो लड़कपन से विरक्त है। ब्रह्मविदों में वरिष्ठ, जो ब्रह्म को जानने वाले लोग हैं उन लोगों में भी जो सबसे ऊँचे परम योगी, जीवनमुक्त, सारे ऋषि-मुनियों के द्वारा जो पूजित हैं, जिनको देखकर ही तमाम ऋषि-मुनि आ गये। ऐसे शुकदेव जी महाराज बोलने वाले, परीक्षित सुनने वाले और तीसरी बात वहाँ श्रोता सारे-के-सारे त्यागी ऋषियों का, मुनियों का मण्डल। इसलिये यहाँ कोई लौकिक श्रृंगार की बात हो, यह सम्भव नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋषिकेश
  2. श्रीमद्भा. 10।29।1

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