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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
‘रास’ शब्द का मूल है रस। भगवान का उपनिषद में एक नाम आता है- रस ‘रसो वै सः’[2] रस जो है वह स्वयं भगवान का एक नाम है। श्रीकृष्ण ही स्वयं रस हैं। जिस एक दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रस का रसास्वादन करे अर्थात एक ही रस रस-समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद, आस्वादक, लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन और उद्दीपन के रूप में क्रीडा करे, उसका नाम रास है। यह जरा समझने का विषय है कि भगवान स्वयं ही इस रस का स्वाद लेने वाले हैं, और स्वयं ही स्वाद हैं और स्वयं ही स्वाद की वस्तु हैं। आस्वाद, आस्वादक और आस्वाद्य एक ही रस इन अनेक रूपों में प्रकट होकर और स्वयं ही अपने-आप ही आलम्बन बनता है तथा अपने-आप ही उद्दीपन बनता है। यों बनकर जो क्रीडा करता है उसका नाम रास है। यह रास जो है यह भी लीलामय भगवान का ही स्वरूप है। यह रासलीला जो है- क्रीडा, यह क्रीडा भी भगवान का स्वरूप है। भगवान की दिव्य लीला जो भगवान का दिव्य धाम है वहाँ तो नित्य-निरन्तर हुआ ही करती है। रासलीला ही चला करती है। परन्तु भगवान की विशेष कृपा से कभी-कभी यह सारा-का-सारा दिव्य धाम इस भू-मण्डल पर उतर आता है। इस वाराहकल्प में भगवान स्वयं जब यहाँ पधारे। भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के जो प्रसंग हैं वे विभिन्न हैं। कभी भगवान विष्णु कृष्ण के अवतार के रूप में आते है। कभी कोई अंश भी कृष्ण के अवतार के रूप में आते हैं और इस वाराह कल्प में भगवान स्वयं, अपने-आप परात्पर जो परब्रह्म हैं, गोलोक-निवासी, वे स्वयं पधारे हैं। जब यह स्वयं पधारते हैं तो उनके साथ सारा-का-सारा मण्डल पधारता है। सबका अवतरण होता है। यह पधारते हैं क्यों? जब कोई इस तरह की परिस्थिति होती है तब जैसे जब वेद की ऋचाओं ने, ऋषियों ने, दण्डकारण्य के मुनियों ने इस प्रकार के वर प्राप्त कर लिये कि जिसके लिये भगवान को स्वयं पधारकर रासमण्डल में रास करना आवश्यक हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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