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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीलातुम ही मेरी माता हौ, तुम ही पिता हौ, अंत में, तुम ही मेरे सरबस्व हौ।’ ऐसैं नित्य मेरी बिनती करै है। परंतु याकौ अर्थ एक हू अच्छर नहीं समझैं है। जो समझतौ तौ परिवार कूँ नहीं रोवतौ, इनकौ पागल गुलाम न बनतौ। मेरौ पागल-प्रेमी बनि जातौ। परंतु वाके माता-पिता तो घर में हैं। बंधु सखा परौस में हैं, वाकी विद्या पोथी में है अथवा गुरू के पास है। वाकी औषधि वैद्यन के पास है। धिन तिजोरी में है। सरबस्व संसार है। फिर मैं कहा हूँ, कछु नहीं। सब काम तौ संसार की सहायता सौं चलि रहे हैं, फिर मोते कहा संबंध! हाँ, जब जीव की गाड़ी दलदल में ऐसी जाय अटकै है कि सबरे बल धरे रहि जायँ हैं तब मेरी याद आवै है।
येहू अपनी अटकी भई गाड़ी कौ ही भजन है, मेरौ भजन नहीं। अपने लियें रोवनौ है मेरे लियें नहीं। मैं तौ वाके ताईं स्त्री-पुत्र-धन-संपत्ती जुटायबेवारौ- उनकी रच्छा-सम्हार करिबेवारौ एक चाकर-सरीखौ हूँ। यदि सब बस्तु जुटाय दीनी-रच्छा कर दीनी तब तौ मेरी खूब मानता होय है और मेरी नौकरी हू चुकाय दी जाय है। नहीं तौ पूजा के बदलें मोकूँ गारी मिलै है। ये है संसार के लोगन की मोमें भक्ति। फिर भलौ ऐसी भक्ति में प्रेम के आँसू कैंसे आवैंगे, वहाँ तौ मोह व ढोंग के ही आँसू आवैंगे। याही सों प्रेम के आँसू दुरलभ और अनमोल हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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