राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 187

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला

तृतीय अध्याय
श्रीगोपी-गीत

(श्लोक)

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ।।1।।

(तुक)

कहनी लगीं-अहो कुँवर कान्ह! ब्रज प्रगटे जब तें।
अवधिभूत इंदिरा इहाँ क्रीडत हैं तब तें।।
सुबन सौं सब सुख बरसत ससि ज्यों बढ़त दिहारी।
तिन में यह पुनि गोप-बधू पिय निपट तिहारी।।

अर्थ- हे प्यारे, तुम्हारे जन्म के कारन बैकुंठ आदि लोकन ते हु ब्रज की महिमा बढ़ि गई है, तब ही तौ सौंदर्य और मृदुलता की देबी लक्ष्मी जी अपनौ निवासस्थान बैकुंठ छोड़ि कैं यहाँ नित्य निरंतर निवास करिबे लगी हैं। परंतु प्रियतम! देखौ, ये तुम्हारी गोपी जिन ने तुम्हारे ही लियें प्रान धारन करि राखे हैं, बन-बन में भटकती तुम्हें ढूँढ़ि रही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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