- समाजी-
(तुक)
- दौरि भुजनि भरि लईं सबनि लै-लै उर लाईं।
- मनहुँ महानिधि खोइ मध्य आधी निधि पाई।।
- कोउ चुंबत मुख-कमल कोऊ, भ्रूभाल सुअलकैं।
- जिन में पिय संगम की मंजुल स्रम-जल झलकैं।।
- पौंछत अपने अंचल रुचिर दृंगचल तिय के।
- पीक भरे सुकपोल लोल रद-क्षत पिय के।।
सखी- हे प्यारी जू! वे कठोर चित्तवारे हम कूँ छोड़ि गये सो छोड़ि गये, परंतु आप कूँ कैसैं छोड़ि गये?
श्रीजी- अरी सखी, मैंने उन सौं अभिमान कियौ, यासौं मोकूँ हूँ छोड़ि गये।
सखी- हे स्वामिनी जू, वे बड़े ही निठुर हैं। यौं कहैं है कि जहाँ कौ बिछुर्यौ, तहाँ ही मिलै है; सो हम सौं प्यारे जमुना तट पै बिछुरे हैं सो वहाँ ही मिलैंगे। यदि न मिले तौ यमुनाजी में कूदि कैं प्रान त्याग देंगी।
(तुक)
- जित-तित तें सब अहुरि-बहुरि जमुना तट आईं।
- जहँ नँद-नंदन जग–बंदन पिय लाड़ लड़ाई।।