राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 176

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला

(श्लोक)

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्रयब्जरेणवः।
यान् ब्रह्मेशो रमा देवी दधुर्मूध्न्यघनुत्तये।।

अर्थ- प्यारी सखियौ, भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरन कमल तें जा रज कौ स्पर्श कर दैय हैं, वह धन्य है जाये है। वाके अहोभाग्य हैं; क्योंकि ब्रह्मा, संकर, लक्ष्मी, आदि हू अपने असुभ नष्ट करिबे के लियें वा रज कँ अपने सीस पै धारण करैं हैं।
(तुक)

धन्न कहत भइँ ताहि नाहिं कछु मन मैं कोपीं।
निरमत्सर जे संत तिन कि चूड़ामनि गोपीं।।

(श्लोक)

न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणांङ्कुरे

खिद्यन्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः।।

अर्थ- अरी सखी, यहाँ तौ वा गोपी के चरन नहीं दीखै हैं। ऐसौ जानि परै है कि यहाँ स्यामसुंदर नें सोच्यो होयगौ कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरनन में घास की नोंक गड़ती होयगी, यासौं अपने कंधा पै चढाय लियौ होयगौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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