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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला
- इत महकति मालती, चारु चंपक चित चोरत।
- इत घनसार तुसार, मलय-मंदार झकोरत।।
- इत लवंग नवरंग, एलची झेलि रही रस।
- इत कुरबक केबरा केतकी गंध बंधुबस।।
- इत तुलसी छबि-हुलसी छाँडति परिमल-लपटैं।
- इत कमोद आमोद गोद भरि-भरि सुख दबटैं।।
- उज्ज्वल मृदुल बालुका कोमल सुभग सुहाई।
- जमुना जू निज कर तरंग करि आपु बनाई।।
- बिलसत बिबिध बिलास हास नीवी कुच परसत।
- सरसत प्रेम अनंग-रंग नव घन ज्यों बरसत।।
- तहँ आयौ वह मैन, पंच सर कर हैं जाकैं।
- ब्रह्मादिक कौं जीति बढि रह्यौ अति मद ताकें।।
- निरखि ब्रजबधू संग रंगभरे नव किसोर तन।
- हरि मनमथ करि मथ्यौ उलटि वा मनमथ कौ मन।।
- मुरछि पज्यो तब मैन, कहूँ धनु, कहुँ निषंग-सर।
- लखि रति-पति की दसा भीत भइ मारति उर कर।।
- पुनि-पुनि पियहि अलिंगति, रोवति अति अनुरागी।
- मदन के बदन चुवाइ अमृत भुज भरि लै भागी।।
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