मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 77

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

11. हम कर्ता-भोक्ता नहीं है

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अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला ही अपने को कर्ता मानता है- ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’[1] अहंकार अपरा प्रकृति है। परन्तु अहंकार से मोहित होते हुए भी वास्तव में वह कर्ता-भोक्ता नहीं है। न तो ब्रह्म कर्ता-भोक्ता है, न जीव कर्ता-भोक्ता है और न आत्मा ही कर्ता-भोक्ता है। कर्ता-भोक्तापन केवल माना हुआ है। इसलिये भगवान ने कहा है कि तत्त्ववेत्ता पुरुष ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा न माने- ‘नैव किंञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’[2] हम परमात्मा के अंश हैं; अतः हम अहंकार से मोहित नहीं हैं; क्योंकि हम परा प्रकृति हैं और अहंकार अपरा प्रकृति है। अहंकार से हम मोहित नहीं होते, प्रत्युत अन्तःकरण मोहित होता है। अन्तःकरण से अपना सम्बन्ध मानने के कारण हम कर्ता-भोक्ता बन जाते हैं।

अनन्त ब्रह्माण्डों में कोई भी चीज हमारी नहीं है तो शरीर हमारा कैसे हुआ? अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला हमारा कैसे हुआ? तभी भगवान् ने कहा है- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’। गीता के तेरहवें अध्याय का इकतीसवाँ श्लोक, तीसरे अध्याय का सत्ताईसवाँ श्लोक और पाँचवें अध्याय का आठवाँ श्लोक[3]-इन श्लोकों पर आप एकान्त में बैठकर विचार करें तो बहुत लाभ होगा। जब स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर मैं हूँ ही नहीं तो फिर कर्ता-भोक्तापन अपने में कैसे हुआ? यह बात हमारी-आपकी नहीं है, प्रत्युत गीता की है! ये गीता में भगवान के वचन हैं!

दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी कोई क्यों हो, सब-के-सब परमात्मा के अंश हैं। आप दृढ़ता से इस बात को स्वीकार कर लें कि हम परमात्मा के अंश हैं। परमात्मा हमारे हैं, संसार हमारा नहीं है प्रत्येक आदमी अपने पिता का होते हुए ही सब कार्य करता है। कोई चाहे रेलवे में काम करे, चाहे बैंक में काम करे, चाहे खेत में काम करे, वह पिता का होते हुए ही सब काम करता है। ऐसे ही हम कोई भी काम करें, परमपिता परमात्मा के होते हुए ही करते हैं। काम करते समय हम दूसरे के नहीं हो जाते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 3। 27
  2. गीता 5। 8
  3. आनदित्वन्निर्गुणत्वात्परामात्मायमव्यय:।
    शरीरस्थोऽपि कौन्तेय ना करोति न लिप्यते॥
    यथा सर्वगतं सौक्ष्यम्यादकाशं नोपलिप्यते।
    सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्य्ते॥
    यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।
    क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्त्नं प्रकाशयति भारत (गीता 13।31-33)
    यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्त्र न लिप्यते।
    हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निब्धयते (गीता 18।17)
    प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वण:।
    अहकांरविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ (गीता 3।27)
    नैव किञ्चित्करोमिति युक्तो मन्येत तत्त्ववित।(गीता 5।8)

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