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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
10. मुक्ति स्वाभाविक है
‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं।’ यह प्रकृतिस्थ पुरुष का वर्णन है। वास्तव में पुरुष किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कोई कर्म नहीं करता, पर प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने पर वह किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता। प्रकृति की क्रिया कभी मिटती ही नहीं और पुरुष (जीवात्मा)-में क्रिया लागू होती ही नहीं। यह स्वतः-स्वाभाविक असंग, निर्लिप्त रहता है। परन्तु प्रकृति से सम्बन्ध मानकर इसने मुक्ति को कृतिसाध्य, उद्योगसाध्य मान लिया है। हम कोई कर्म करें, तभी शरीर काम आता है। कोई भी कर्म न करें तो शरीर का क्या उपयोग है? शरीर से परिवार की, समाज की अथवा संसार की सेवा कर सकते हैं। अपने लिये शरीर है ही नहीं। स्थूल शरीर से कोई काम न करें तो स्थूल शरीर निकम्मा है। कोई चिन्तन ना करें तो सूक्ष्मशरीर निकम्मा है। स्थिरता में अथवा समाधि न रहें तो कारणशरीर निकम्मा है।[1] तात्पर्य है कि ये सब क्रियाएँ स्वरूप में नहीं होतीं, पर मनुष्य इनको अपने में मान लेता है। यह मान्यता ही बन्धन है। अपने को कर्ता मानने से यह बँध जाता है- ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’[2] और अपने को कर्ता न मानने से यह मुक्त हो जाता है- ‘नैव किंञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’।[3] जैसे मनुष्य एक लड़की के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो उसका पूरे ससुराल (सास-ससुर, साला-साली आदि)- के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। ऐसे ही एक शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से शरीर से होने वाली सम्पूर्ण क्रियाएँ हो जाती हैं। शरीर से स्वाभाविक अलगाव का अनुभव हो जाय तो फिर जन्म-मरण नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जब साधक स्थिरता में भी तटस्थ हो जाता है और स्थिरता का भी साक्षी हो जाता है, तब वह कारण शरीर से भी अलग हो जाता है, जो उसका वास्तविक स्वरूप है।
- ↑ गीता 3। 27
- ↑ गीता 5। 7
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