मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 69

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

10. मुक्ति स्वाभाविक है

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पुरुष भोक्तापन में हेतु तो है, पर क्रिया में हेतु नहीं है। सभी भोग क्रियाजन्य होते हैं। जब पुरुष प्रकृति में स्थित होता है, तभी वह भोक्ता होता है- ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान्’।[1] प्रकृति से अलग होने पर पुरुष भोक्ता नहीं होता। यह पुरुष की विलक्षणता है कि देह में स्थित होता हुआ भी वह देह से पर है अर्थात देह से असंग, अलिप्त, असम्बद्ध है- ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’।[2] शरीर के साथ अपनी एकता मानने से ही वह कर्ता-भोक्ता बनता है, अन्यथा वह कर्ता-भोक्ता है ही नहीं- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’।[3] जैसे सूर्य सब को प्रकाशित करता है, पर वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं बनता। सूर्य के प्रकाश में कोई वेद पढ़ता है तो सूर्य उस पुण्य का भागी नहीं होता और कोई शिकार करता है तो सूर्य उस पाप का भागी नहीं होता। ऐसे ही पुरुष शरीर के साथ सम्बन्ध न जोड़े तो वह पाप-पुण्य का भागी नहीं होता।

जीवात्मा की प्रकृति के साथ मानी हुई एकता है और परमात्मा के साथ स्वरूप से एकता है; क्योंकि यह परमात्मा का ही अंश है। शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से यह कर्ता-भोक्ता बनता है और जन्म-मरण में चला जाता है। अगर यह शरीर के साथ सम्बन्ध न जोड़े तो मुक्त हो जाता है। वास्तव में यह मुक्त ही है। यह स्वतः-स्वाभाविक सबमें परिपूर्ण होते हुए भी अपने को एक शरीर में स्थित मान लेता है और जन्म-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। अगर यह अपने निर्विकल्प स्वरूप में स्थित रहे तो शरीर में रहता हुआ भी कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। जीवात्मा में निर्लिप्तता स्वाभाविक है और लिप्तता कृत्रिम है। परन्तु निर्लिप्तता की तरफ उसकी दृष्टि नहीं है। यह मुक्त होता नहीं है, प्रत्युत मुक्त है, पर उस तरफ इसकी दृष्टि नहीं है। जैसे परमात्मा सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी कर्ता-भोक्ता नहीं बनते, ऐसे ही सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी जीवात्मा कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। जीवात्मा का परमात्मा से साधर्म्य है- ‘मम साधर्म्यमागताः’।[4] यह साधर्म्य स्वतःस्वाभाविक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 13। 21
  2. गीता 13। 22
  3. गीता 13। 31
  4. गीता 14। 2

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