मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 53

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

8. साधक, साध्य तथा साधन

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अगर साधक साध्य के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्य के सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह)- का भी साधक है। उसने अपने मन में दूसरे को भी सत्ता दी है। अगर साध्य साधक के बिना रहता है तो समझना चाहिये कि साध्य के सिवाय साधक का अन्य भी कोई साध्य है अर्थात भोग तथा संग्रह भी साध्य है। हृदय में नाशवान का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनें में कमी है। साधकपनें में जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्य से दूरी रहती है। पूर्ण साधक होने पर साध्य की प्राप्ति हो जाती है।

शरीर को मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानने से ही साधक को साध्य की अप्राप्ति दीखती है। साध्य के सिवाय अन्य की सत्ता स्वीकार न करना ही उसकी प्राप्ति का बढ़िया उपाय है। इसलिये साधक की दृष्टि केवल इस तरफ रहनी चाहिये कि संसार नहीं है। संसार का पहले भी अभाव था, बाद में भी अभाव हो जायगा और बीच में भी वह प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। संसार की स्थिति है ही नहीं। उत्पत्ति-प्रलय की धारा ही स्थिति रूप से दीखती है।

साधक के लिये साध्य में विश्वास और प्रेम होना बहुत जरूरी है। विश्वास और प्रेम उसी साध्य में होना चाहिये, जो विवेक-विरोधी न हो। मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तु में विश्वास और प्रेम करना विवेक-विरोधी है। विश्वास और प्रेम-दोनों में कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे। विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा। अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वास में कमी है अर्थात साध्य (परमात्मा)- के विश्वास के साथ संसार का विश्वास भी है। पूर्ण विश्वास होने पर एक सत्ता के सिवाय अन्य (संसार)-की सत्ता ही नहीं रहेगी। साध्य में विश्वास की कमी होगी तो साधन में भी विश्वास की कमी होगी अर्थात साध्य के सिवाय अन्य इच्छाएँ भी होंगी। जितनी दूसरी इच्छा है, उतनी ही साधन में कमी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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