मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 43

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

6. संसार का असर कैसे छूटे ?

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फिर स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्मा को अपना मानने से, उसके शरणागत होने से अलौकिक साधना (भक्तियोग)-की सिद्धि हो जाती है अर्थात् परम प्रेम की प्राप्ति हो जाती है। परम प्रेम की प्राप्ति में ही मनुष्य जन्म की पूर्णता है।[1] इसलिये साधक को आरम्भ से ही इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिये कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है। कारण कि मैं परा प्रकृति (चेतन) हूँ, जो कि परमात्मा का अंश है और शरीर-संसार अपरा प्रकृति (जड़) है। अपरा प्रकृति अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी हमारी वास्तविक इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकती अर्थात हमें अमर नहीं बना सकती, हमारा अज्ञान नहीं मिटा सकती और हमें सदा के लिये सुखी नहीं कर सकती।

प्रश्न- सत्संग में ऐसी बातें सुनते हुए भी जब व्यवहार करते हैं, तब राजी-नाराज हो जाते हैं, क्या करें?

उत्तर- व्यवहार में राजी-नाराज हो जाते हैं तो यह बालकपना है। बच्चे खेलते हैं तो वे मिट्टी इकट्ठी करके पहाड़, मकान आदि बना देते हैं और उसमें लाइन खींच देते हैं कि इतनी जमीन मेरी है, इतनी तुम्हारी है। दूसरा बच्चा जमीन ले लेता है तो लड़ने लग जाते हैं कि तुमने हमारी जमीन कैसे ले ली? यह तुम्हारी नहीं, हमारी है। कोई बड़ा आदम आकर कहता है कि ‘बच्चो! लड़ते क्यों हो?’ वे कहते हैं कि हमने पहले लकीर खींची है, इसलिये यह हमारी है। वह आदमी कहता है कि अच्छा, तुम ऐसा-ऐसा कर दो तो दोनों राजी हो जाते हैं। इतने में माँ बुलाती है कि ‘अरे बच्चों! आओ, भोजन का समय हो गया’ तो बच्चे झट उठकर चल देते हैं। अब उनका जमीन से कोई मतलब नहीं! इसी तरह हम कहते हैं कि धन-सम्पत्ति हमारी है, जमीन हमारी है आदि। वास्तव में न हमारी है, न तुम्हारी है। यह तो खेल है, तमाशा है!

एक दिन धन-सम्पत्ति, जमीन आदि सबको छोड़कर जाना पड़ेगा। इनकी याद तक नहीं रहेगी। पिछले जन्म में हमारा कौन-सा घर था, कौन-सा कुटुम्ब था, अब याद है क्या? इस संसार की कोई भी वस्तु व्यक्तिगत नहीं है। जैसे धर्मशाला सबके लिये होती है है, ऐसे ही यह संसार सबके लिये है। इसलिये मकान वही रहते हैं, जमीन वही रहती है, पर आदमी बदलते रहते हैं। इन बातों की तरफ आपका ध्यान जाना चाहिये। सत्संग करने वालों का इन बातों की तरफ ध्यान नहीं जायगा तो फिर किसका जायगा? सत्संग भी करते हो और राग-द्वेष भी करते हो तो वास्तव में सत्संग किया ही नहीं, सत्संग सुना ही नहीं, सत्संग समझा ही नहीं, सत्संग की हवा ही नहीं लगी! सत्संग में राग-द्वेष, काम-क्रोध कम नहीं होंगे तो फिर कैसे कम होंगे? यदि आपके भावों में आचरणों में फर्क नहीं पड़ा तो सत्संग क्या किया! कोरा समय ख़राब किया! सत्संग करे और फर्क नहीं पड़े-यह हो ही नहीं सकता। सत्संग करेगा तो फर्क जरूर पड़ेगा। फर्क नहीं पड़ा तो असली सत्संग मिला नहीं है। असली सत्संग मिले तो फर्क पड़े बिना रह सकता ही नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लौकिक साधना की सिद्धि में तो अहम की सूक्ष्म गंध रह सकती है, पर अलौकिक साधना की सिद्धि में अहम की सूक्ष्म गंध भी नहीं रहती।

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