भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 75

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

40.कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोअभिभवत्युत॥

कुल का विनाश हो जाने पर पुराने चले आ रहे कुल के धर्म अर्थात् विधान नष्ट हो जाते हैं और इन धर्मों के नष्ट हो जाने पर सारे परिवार में अधर्म फैल जाता है। युद्ध हमें हमारे प्राकृतिक घरेलू परिवेश से अलग कर देते हैं और सामाजिक परम्पराओं से, जो कि लोगों के परिपक्व संकल्प और अनुभव का सार है, हमें उखाड़कर दूर फेंक देते हैं।

41.अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसंकरः ॥

और जब अधर्म फैल जाता है, तब हे वार्ष्णेय (कृष्ण), परिवारों की स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं। और जब स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं, तब वर्णसंकर अर्थात् विभिन्न जातियों का मिश्रण हो जाता है। सामान्यतः ’वर्ण’ शब्द का अर्थ जाति किया जाता है, हालाँकि वर्तमान जाति-व्यवस्था किसी प्रकार गीता के आदर्श से मेल नहीं खाती।

42.संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥

और यह वर्णसंकर सारे परिवार को और उस परिवार को नष्ट करने वाले लोगों को नरक में पहुँचा देता है, क्यों कि उनके पिंजरों अर्थात् पूर्वजों की आत्माएं अन्न और जल से वंचित होकर गिर पड़ती हैं। इस विश्वास की ओर संकेत है कि मृत पूर्वजों को अपने कल्याण के लिए अन्न और जल की बलि की आवश्यकता होती है।

43.दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥

कुल का विनाश करने वाले लोगों के इन दुष्कर्मों के कारण, जिनसे वर्णसंकर अर्थात् जातियों का मिश्रण उत्पन्न होता है, सदा से चले आ रहे जातिधर्म और कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। जब हम सदा से चली आ रही परम्पराओं में निहित आदर्शों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं, जब हम सामाजिक सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं, तब हम संसार में केवल अव्यवस्था फैला रहे होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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