भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है
1.मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युज्जन्मदाश्रयः । श्री भगवान् ने कहा: हे अर्जुन, अब यह सुन कि योग का अभ्यास करता हुआ, अपने चित्त को मुझमें लगाकर और मुझी को आश्रय मानकर असन्दिग्ध-रूप से तू पूरी तरह मुझको किस प्रकार जानेगा? लेखक ब्रह्म का पूर्ण या समग्र ज्ञान देना चाहता है; केवल विशुद्ध आत्मा का नहीं, अपितु संसार में उसके प्रकट-रूप का भी। 2.ज्ञानं तेअहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । मैं तुझे यह सारा ज्ञान विज्ञानसहित पूरी तरह बताऊंगा, जिसे जान लेने के बाद जानने को और कुछ शेष नहीं बचेगा। देखिए, 3, 4। की टिप्पणी। ज्ञान की व्याख्या बोध के रूप में,प्रत्यक्ष आध्यात्मिक प्रबोधन के रूप में की गई है और विज्ञान की व्याख्या अस्तित्व के सिद्धान्तों के विस्तृत बुद्धिसंगत ज्ञान के रूप में। हमें केवल सम्बन्ध-रहित परब्रह्म का ही ज्ञान नहीं होना चाहिए, अपितु उसके विविध प्रकट-रूपों का भी ज्ञान होना चाहिए। भगवान् मनुष्य और प्रकृति में है, हालांकि ये उसे सीमित नहीं कर देते। 3.मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। हजारों मनुष्यों में से कोई एक इस योग की सिद्धि के लिए यत्न करता है; और जो लोग यत्न करते हैं और सिद्धि पा लेते हैं, उनमें से भी मुश्किल से कोई एक मुझे सच्चे रूप में जान पाता है। एक और पाठ है- यततां च सहस्राणाम्: ’’और हजारों यत्न करने वालों में से।’’ हममें से अधिकाश लोग पूर्णता प्राप्त करने की आवश्यकता तक अनुभव नहीं करते। हम परम्पराओं और प्राधिकारों की आवाज के साथ-साथ चलते जाते हैं। जो लोग सत्य को देखने और लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं, उनमें से केवल थोडे़-से ही सफल हो पाते हैं। जिन लोगों को ऐसी दृष्टि प्राप्त हो भी जाती है, उनमें से एक भी उस दृष्टि के अनुसार चलना और जीना नहीं सीख पाता। 4.भूमिरापोअनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन और बुद्धि और अहंकार- मेरी प्रकृति इन आठ रूपों में बंटी हुई है।प्रकृति:: प्रकृति, जिसे शक्ति या माया माना गया है [1], जो वस्तु-रूपात्मक जगत् का आधार है। [2] ये वे आठ रूप हैं, जिन्हें अव्यक्त प्रकृति व्यक्त होते समय धारण करती है। यह एक प्राचीन वर्गीकरण है, जो बाद में जाकर चौबीस तत्त्वों के रूप में और विशद कर दिया गया है। देखिए 13, 5। इन्द्रियों, मन और बुद्धि का सम्बन्ध निम्नतर या भौतिक प्रकृति से है; क्योंकि सांख्य मनोविज्ञान के अनुसार जिसे वेदान्त ने भी स्वीकार किया है, वे वस्तुओं के साथ सम्पर्क स्थापित करती हैं और चेतना केवल तब उत्पन्न होती है, जबकि आत्मिक कर्ता, पुरुष, उन्हें प्रबोधित करता है। जब आत्मा प्रबुद्ध हो जाती है, तब इन्द्रियों, मन और बुद्धि की गतिविधियां ज्ञान की प्रक्रिया बन जाती हैं और वस्तुएं ज्ञान का विषय बन जाती हैं। अहंकार या अहं की भावना ’वस्तु-रूपात्मक’ पक्ष में आती है। यह वह मूल तत्त्व है, जिसके द्वारा जीव वस्तुओं के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करता है। यह (अहंकार) अपने साथ संयुक्त हुए शरीर और इन्द्रियों का अपने ऊपर आरोपण कर लेता है। यह शरीर की आत्मिक कर्ता के साथ एक मिथ्या एकात्मता उत्पन्न कर देता है और इसके कारण ’मैं’ या ’मेरा’ की भावना उत्पन्न हो जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मायाख्या परमेश्वरी शक्तिरनिर्वचनीयस्वभावा त्रिगुणात्मिका। - मधुसूदन।
- ↑ जडप्रपच्चोपादानभता। - नीलकण्ठ।
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